साधू-सन्तों
के यहाँ, क्यों हैं इतने ठाठ।
धन-दौलत
बाबाओं की, निर्धन में दो बाँट।।
दुनियादारी
छोड़कर, जब हो गये विरक्त।
फिर क्यों
साधू हो रहे, भोगों में अनुरक्त।।
एक मीन कर देत है, गन्दा सारा ताल।
यहाँ कंकड़ों से भरी, अब तो पूरी दाल।।
भक्तों की भगवान से, टूट गयी जब आस।
कौन करेगा अब भला, सन्तों पर विश्वास।।
तन में ठहरी वासना, जिह्वा पर हरि बोल।
देर लगी तो क्या हुआ, खुली ढोल की पोल।।
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मंगलवार, 3 सितंबर 2013
"दोहे-खुली ढोल की पोल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बने कान्त एकांत में, होय क्वारपन क्लांत |
होय क्वारपन क्लांत, बुद्धि से संत अपाहिज |
बढे दरिन्दे घोर, हुआ अब भारत आजिज |
बड़ी सजा की मांग, सुरक्षा से है तालुक |
मात पिता जा जाग, परिस्थिति बेहद नाजुक |
बहुत ही सुंदर रचना, संतों का भंडाफोड़ करता है आपका ये पोस्ट......... कल की गलती के लिए मैं आपसे तहेदिल से माफी चाहता हूँ सर........
जवाब देंहटाएंसटीक-सुंदर रचना....
जवाब देंहटाएंसटीक सुन्दर दोहे,,,
जवाब देंहटाएंRECENT POST : फूल बिछा न सको
लखि सुबेष जग बंचक जेऊ ,बेश प्रताप पूजिअहिं तेऊ ,
जवाब देंहटाएंउघरहिं अंत न होइ निबाहू ,कालनेमि जिमि रावन राहू।
जो (वेशधारी )ठग हैं ,उन्हें भी अच्छा (साधु -सा )वेश बनाए देखकर वेश के प्रताप से जगत पूजता है
;परन्तु एक -न -एक दिन वे चौड़े आ ही जाते हैं ,उनकी अ - सलियत सामने आ जाती है। अंत तक
उनका कपट नहीं निभता ,जैसे कालनेमि ,रावण और राहुका हाल हुआवैसे ही आशा राम बापू का हुआ
है।
हार्दिक बधाई और शुभकामनायें!
जवाब देंहटाएंसार्थक और सटीक दोहै
जवाब देंहटाएंसार्थक दोहे...आस्था पर तमाचा सा है ये सब
जवाब देंहटाएं