बापू के अवसान को, बीते सत्तर साल।
राम-राज आया नहीं, मन में यही मलाल।।
गंगा जी में उग रहे, जगह-जगह शैवाल।
होगा पावन नीर कब, मन में यही सवाल।।
भाषण तक सीमित हुए, गाँधी के उपदेश।
सत्य-अहिंसा का नहीं, बना यहाँ परिवेश।।
भुना रहे थे कल तलक, जो गाँधी का नाम।
जनता ने उनका किया, पूरा काम तमाम।।
जीत रहा है झूठ अब, सत्य रहा है हार।
बढ़ते भ्रष्टाचार की, तेज हुई रफ्तार।।
जनता ने आशाओं से, जिनको सौंपा ताज।
वो नवयुग के नाम पर, लाये नये रिवाज।।
राम नाम के राज में, नहीं राम का राज।
महँगाई ने कर दिया, दर-दर का मुहताज।।
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मंगलवार, 2 अक्टूबर 2018
दोहे "नहीं राम का राज" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (03-10-2018) को "नहीं राम का राज" (चर्चा अंक-3113) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
बहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंबापू के अवसान को, बीते सत्तर साल।
जवाब देंहटाएंराम-राज आया नहीं, मन में यही मलाल।।
गंगा जी में उग रहे, जगह-जगह शैवाल।
होगा पावन नीर कब, मन में यही सवाल।।
भाषण तक सीमित हुए, गाँधी के उपदेश।
सत्य-अहिंसा का नहीं, बना यहाँ परिवेश।।
भुना रहे थे कल तलक, जो गाँधी का नाम।
जनता ने उनका किया, पूरा काम तमाम।।
जीत रहा है झूठ अब, सत्य रहा है हार।
बढ़ते भ्रष्टाचार की, तेज हुई रफ्तार।।
जनता ने आशाओं से, जिनको सौंपा ताज।
वो नवयुग के नाम पर, लाये नये रिवाज।।
राम नाम के राज में, नहीं राम का राज।
महँगाई ने कर दिया, दर-दर का मुहताज।।
बेहतरीन बेहतरीन -शास्त्री जी की कल्पना बेहतरीन
सूख गए सब ताल तलैया उजड़ा परिवेश।
मानसरोवर रह गया कविताओं में शेष।
राहुल ही अब रह गया बचाखुचा अवशेष ,
गली गली है घूमता बदल बदल के भेष।
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