गोबर लिपे हुए घर-आँगन नहीं रहे
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आज आदमी में मानवता सुप्त हुई
गौशालाएँ भी नगरों से लुप्त हुई
दाग लगे हैं आज चमन के दामन में
वैद्यराज सा नीम नहीं है आँगन में
ताल और लय मनभावन नहीं रहे
गोबर लिपे हुए घर-आँगन नहीं रहे
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यौवन आने से पहले सूखी डाली
लुटी-पिटी सी है पेड़ों की हरियाली
कौन करेगा आज चमन की रखवाली
बने हुए खुदगर्ज आज वन के माली
कृष्णचन्द्र के अब वृन्दावन नहीं रहे
गोबर लिपे हुए घर-आँगन नहीं रहे
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इन्द्रधनुष ने रंग बदलने छोड़ दिये
इतिहासों के पृष्ठ पलटने छोड़ दिये
रीत-रिवाज पुराने हमने छोड़ दिये
भारतीय परिधान पहनने छोड़ दिये
रिमझिम वाले भादो-सावन नहीं रहे
गोबर लिपे हुए घर-आँगन नहीं रहे
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शिक्षा का अब है अकाल विद्यालय में
मस्त हो रही नई पौध मदिरालय में
दादा-दादी पड़े हुए वृद्धालय में
घर के मसले तय होते न्यायालय में
देवतुल्य पर्वत के पाहन नहीं रहे
गोबर लिपे हुए घर-आँगन नहीं रहे
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शुक्रवार, 6 मार्च 2020
गीत "गोबर लिपे हुए घर-आँगन नहीं रहे" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (7-3-2020 ) को शब्द-सृजन-11 " आँगन " (चर्चाअंक -3633) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये। आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
सुन्दर और सटीक रचना
जवाब देंहटाएंमहक लुटाते कानन पावन नहीं रहे
जवाब देंहटाएंगोबर लिपे हुए घर-आँगन नहीं रहे
सत्य को उजागर करता बहुत सुन्दर गीत ।
वाह!!!
जवाब देंहटाएंगोबर लिपे घर आँगन की बात ही अलग थी...
बहुत लाजवाब
वाह !बेहतरीन सृजन आदरणीय सर
जवाब देंहटाएंसादर