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पथ उनको क्या भटकायेगा, जो अपनी खुद राह बनाते
भूले-भटके राही को वो, उसकी मंजिल तक पहुँचाते
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अल्फाज़ों के चतुर चितेरे, धीर-वीर-गम्भीर सुख़नवर
जहाँ न पहुँचें सूरज-चन्दा, वो उस मंजर तक हो आते
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अमर नहीं है काया-माया, लेकिन शब्द अमर होते हैं
शब्द धरोहर हैं समाज की, दिशाहीन को दिशा दिखाते
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विरह-व्यथा की भट्टी में, जब तपकर शब्द निकलते हैं
पाषाणों के भीतर जाकर, वो सीधे दिल को छू जाते
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चाहे ग़ज़ल-गीत हो, या फिर दोहा या रूबाई हो
वजन बराबर हो तो, अपना असर बराबर दिखलाते
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सत्ता-शासन में रहने से, कोई बड़ा नहीं होता है
रोटी-रोजी जो देते हैं, भामाशाह वही कहलाते
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असली 'रूप' दिखाता दर्पण, जो औकात बताता सबको
जो काँटों में पले-बढ़े हैं, वो ही तो गुलशन महकाते
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मंगलवार, 17 मार्च 2020
गीतिका "दिशाहीन को दिशा दिखाते" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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बेहतरीन ग़ज़ल
जवाब देंहटाएंलाज़बाब ग़ज़ल ,सादर नमन सर
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर सृजन .
जवाब देंहटाएं