-- नही कार-बँगला, न धन चाहता हूँ। तुम्हारे चरण-रज का कण चाहता हूँ।। -- दिया एक मन और तन भी दिया है, दशम् द्वार वाला भवन भी दिया है, मैं अपने चमन में अमन चाहता हूँ। तुम्हारे चरण-रज का कण चाहता हूँ।। -- उगे सुख का सूरज, धरा जगमगाये, फसल खेत में रात-दिन लहलहाये, समय से जो बरसे वो घन चाहता हूँ। तुम्हारे चरण-रज का कण चाहता हूँ।। -- बजे शंख-घण्टे, नमाजें अदा हों, वतन के मुसाफिर वतन पर फिदा हों, मैं गीतों की गंग-ओ-जमुन चाहता हूँ। तुम्हारे चरण-रज का कण चाहता हूँ।। -- कलम के पुजारी, कहीं सो न जाना, अलख एकता की हमेशा जगाना, अडिगता-सजगता का प्रण चाहता हूँ। तुम्हारे चरण-रज का कण चाहता हूँ। -- |
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मंगलवार, 30 मार्च 2021
वन्दना "अडिगता-सजगता का प्रण चाहता हूँ" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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वाह, बहुत ख़ूब
जवाब देंहटाएंफसल खेत में रात-दिन लहलहाये,
जवाब देंहटाएंसमय से जो बरसे वो घन चाहता हूँ।सुंदर सशक्त भावाभिव्यक्ति अर्थ के साथ निवेदन भी लिए है।
उगे सुख का सूरज, धरा जगमगाये,
जवाब देंहटाएंफसल खेत में रात-दिन लहलहाये,
समय से जो बरसे वो घन चाहता हूँ।
तुम्हारे चरण-रज का कण चाहता हूँ।।
बेहतरीन और लाजवाब सृजन ।
अहा! बहुत ही सुंदर मन मोहक सृजन।
जवाब देंहटाएंसादर।
प्रणाम शास्त्री जी, ये वन्दना तो हम सभी को करनी होगी...वरना किसी भी आकांक्षा का कोई अंत नहीं...अद्भुत लिखा
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर वंदना....
जवाब देंहटाएंनमन आपको 🙏