-- शब्दों से कुश्ती करने का, दाँव-पेंच हो जाता है। स्याही नहीं लेखनी में अब, खून उतरकर आता है।। -- पहले से अनुमान लगाकर, नहीं नियोजन करता हूँ, मैं अपने लेखन से प्रतिदिन, कुछ पन्नों को भरता हूँ, जैसे एक नशेड़ी पथ पर, अपने कदम बढ़ाता है। स्याही नहीं लेखनी में अब, खून उतरकर आता है।। -- कोयल ने जब कुहुक भरी तो, मन ही मन मुस्काता हूँ, जब काँटे चुभते पाँवों में, थोड़ा सा सुस्ताता हूँ, सुख-दुख के ताने-बाने का, अनुभव मुझे सताता है। स्याही नहीं लेखनी में अब, खून उतरकर आता है।। -- कैसे तन और मन हो निर्मल, मैली गंगा की धारा, कंकरीट की देख फसल को, कृषक बन गया बे-चारा, धरा-धाम और जल-जीवन से, मेरा भी तो नाता है। स्याही नहीं लेखनी में अब, खून उतरकर आता है।। -- लज्जा लुटती देख नारि की, कैसे चुप हो जाऊँ मैं, हालत देख किसानों की, कैसे गुमसुम हो जाऊँ मैं, मातृमूमि से गद्दारी को, सहन न मन कर पाता है। स्याही नहीं लेखनी में अब, खून उतरकर आता है।। -- |
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शुक्रवार, 21 जनवरी 2022
गीत "कैसे गुमसुम हो जाऊँ मैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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एक संवेदनशील साहित्यकार समाज में हो रहे अन्याय को देखकर चुप कैसे रह सकता है
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२२-०१ -२०२२ ) को
'वक्त बदलते हैं , हालात बदलते हैं !'(चर्चा अंक-४३१३) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
लज्जा लुटती देख नारि की,
जवाब देंहटाएंकैसे चुप हो जाऊँ मैं,
हालत देख किसानों की,
कैसे गुमसुम हो जाऊँ मैं,
मातृमूमि से गद्दारी को,
सहन न मन कर पाता है।
स्याही नहीं लेखनी में अब,
खून उतरकर आता है।।
एक सच्चा और संवेदनशील साहित्यकार कभी भी ऐसे मुद्दों पर चुप्पी नहीं साध सकता! वह हर ऐसे मुद्दे पर खुलकर बोलता ही है !
बहुत ही उम्दा सृजन...
इस बेहतरीन सृजन के लिए आभार🙏
नमन् 🙏
बहुत ही सुन्दर सार्थक रचना आदरणीय 🙏🙏
जवाब देंहटाएंमान्यवर, अपनी लेखनी को विश्राम मत दीजिए.
जवाब देंहटाएंजन-जागृति के लिए आपकी कलम की सेवाएँ आवश्यक हैं.
कैसे तन और मन हो निर्मल,
जवाब देंहटाएंमैली गंगा की धारा,
कंकरीट की देख फसल को,
कृषक बन गया बे-चारा,
धरा-धाम और जल-जीवन से,
मेरा भी तो नाता है।
स्याही नहीं लेखनी में अब,
खून उतरकर आता है।।
सुन्दर अभिव्यक्ति आदरणीय ।
सार्थक अभिव्यक्ति आ0
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