पुरानी डायरी से
मन हुआ अनमना बात ही बात में।
खो गया मैं कहाँ जाने जज्बात में।।
दिल की दौलत लुटाई बड़े चाव से,
उसने लूटा खजाना मुलाकात में।
खो गया मैं कहाँ जाने जज्बात में।।
जाल पर जाल वो फेंकते ही गये,
कितना जादू था उनके खयालात में।
खो गया मैं कहाँ जाने जज्बात में।।
देर से ही सही सच उजागर हुआ,
सिर्फ छल-छद्म था उनकी सौगात में।
खो गया मैं कहाँ जाने जज्बात में।।
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शनिवार, 20 जून 2009
’’खो गया मैं कहाँ जाने जज्बात में’’ (डा0 रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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बहुत सुन्दर और रूमानी रचना है
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब शास्त्री यह कमाल की रचना है, दिल को छू गयी।
जवाब देंहटाएं---
http://pinkbuds.blogspot.com
kya khoob likha hai bhavnaon ke toofan ko
जवाब देंहटाएंkho gaye hum bhi aapki gazal ke ahsaas mein
bahut hi badhiya abhivyakti hai.shandaar.
बहुत ही बेहतरीन रचना जिसे प्रस्तुत करने के लिये आभार।
जवाब देंहटाएंवाह!! आपके लेखन का एक और आयाम! बहुत सुन्दर.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया रचना है।आपकी रचना पढकर एक गीत की कुछ पंक्तियां याद आ गई......सब कुछ लुटा के होश में आए तो क्या किया......
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना .
जवाब देंहटाएंरामराम.
बहुत सुन्दर रचना..
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