एक पुरानी कविता
मौसम ने करवट बदली है, ली समीर ने अँगड़ाई।
कविता के उपवन-कानन की, हैं कलियाँ मुस्काई।। जालिम दुनिया ने तो दिल को, समझा एक खिलौना। खा-पीकर के फेंक दिया है, समझ चाट का दौना।। गागर के मुख पर अमृत है, भीतर भरा हलाहल है। नदियों के गीले तटबन्धों पर, फैला होता दलदल है।। भँवर जाल में फँस मत जाना, सागर के समतल तल पर। देख-भाल कर कदम बढ़ाना, चलना संभल-संभल कर।। |
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शुक्रवार, 12 जून 2009
‘‘चलना संभल-संभल कर’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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अच्छी सीख.. बडो़ के लिये भी..
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया.जीवन के सच को दिखाती कविता. बधाई.
जवाब देंहटाएंbahut badhiya utsahvardhan karti kavita
जवाब देंहटाएंएक खुबसूरत नसीहत......अच्छी रचना
जवाब देंहटाएंअति ज्ञानदायक रचना.
जवाब देंहटाएंरामराम.
aur prerak kavitaa ke liye dhanyvad
जवाब देंहटाएंbahut hi umda !
जवाब देंहटाएंबड़ी पते की बात कही है आपने.
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