जलने को परवाने आतुर, आशा के दीप जलाओ तो। कब से बैठे प्यासे चातुर, गगरी से जल छलकाओ तो।। मधुवन में महक समाई है, कलियों में यौवन सा छाया, मस्ती में दीवाना होकर, भँवरा उपवन में मँडराया, वह झूम रहा होकर व्याकुल, तुम पंखुरिया फैलाओ तो। कब से बैठे प्यासे चातुर, गगरी से जल छलकाओ तो।। मधुमक्खी भीने-भीने स्वर में, सुन्दर गीत सुनाती है, सुन्दर पंखों वाली तितली भी, आस लगाए आती है, सूरज की किरणें कहती है, कलियों खुलकर मुस्काओ तो। कब से बैठे प्यासे चातुर, गगरी से जल छलकाओ तो।। मधु का कण भर इनको मत दो, पर आमन्त्रण तो दे दो, पहचानापन विस्मृत करके, इक मौन-निमन्त्रण तो दे दो, काली घनघोर घटाओं में, बिजली बन कर आ जाओ तो। कब से बैठे प्यासे चातुर, गगरी से जल छलकाओ तो।। (चित्र गूगल सर्च से साभार) |
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शनिवार, 27 जून 2009
‘‘आशा के दीप जलाओ तो’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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बहुत ही सुन्दर शब्दों के साथ अतिउत्तम रचना, बधाई ।
जवाब देंहटाएंprem ras se bheega geet.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर... बधाई..
जवाब देंहटाएंएक अलग ही मूड की कविता, बढिया है.
जवाब देंहटाएंwaah waah
जवाब देंहटाएंumda kavita ....abhinav kavita
आशांवित करती रचना सुखद अनुभव देती है
जवाब देंहटाएं---
चर्चा । Discuss INDIA
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल 15 -09 - 2011 को यहाँ भी है
जवाब देंहटाएं...नयी पुरानी हलचल में ... आईनों के शहर का वो शख्स था
मधु का कण भर इनको मत दो, पर आमन्त्रण तो दे दो,
जवाब देंहटाएंपहचानापन विस्मृत करके, इक मौन-निमन्त्रण तो दे दो,
नि:शब्द करती पंक्तियाँ.
गगरी से जल छलकाओ तो ! भावों की बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति है इस अर्चना में । शुभकामनाएँ ।
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