ये हमारी तरह है सरल औ' सुगम, सारे संसार में इसका सानी नहीं। जो लिखा है उसी को पढ़ो मित्रवर, बोलने में कहीं बेईमानी नहीं। BUT व PUT का नहीं भेद इसमें भरा, धाँधली की कहीं भी निशानी नहीं। व्याकरण में भरा पूर्ण विज्ञान है, जोड़ औ' तोड़ की कुछ कहानी नहीं। सन्धि नियमों में पूरी उतरती खरी, मातृभाषा हमारी बिरानी नहीं। मेरे भारत की भाषाएँ फूलें-फलें, हमको सन्तों की वाणी भुलानी नहीं। "रूप" इसका सँवारें सकल विश्व में, रुकने पाए हमारी रवानी नहीं। |
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रविवार, 16 सितंबर 2012
"सन्तों की वाणी" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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हमारी भाषा सदियों से संजोयी है..आँखों का तारा बन कर रहेगी..
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर |
जवाब देंहटाएंहमारी भाषा भले ही अधिक प्रचलन में ना रही हों पर हमारे साहित्य और संस्कृति में सदियों से है और रहेगी|
सादर नमन |
नई कविता-"बेहिसाब याद आती है,माँ..!"
आभार..|
बहुत सटीक विवेचन किया है
जवाब देंहटाएंसही है ..:)
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग की नयी पोस्ट पर आपका स्वागत है ..
देवभाषा से उत्पन्न हिंदी भाषा सदियों से चली आ रही है और सदियों तक चलती रहेगी. इसका कोई और विकल्प नहीं बन सकता है.
जवाब देंहटाएं--
हिंदी भाषा अमर और अमिट है..
जवाब देंहटाएंसबसे सरल .सबसे सीधी ..
:-)
बहुत सुन्दर |
जवाब देंहटाएंजय जय हिंदी |
वाह!
जवाब देंहटाएंआपकी इस ख़ूबसूरत प्रविष्टि को आज दिनांक 17-09-2012 को ट्रैफिक सिग्नल सी ज़िन्दगी : सोमवारीय चर्चामंच-1005 पर लिंक किया जा रहा है। सादर सूचनार्थ
अपनी भाषा की बात क्या !
जवाब देंहटाएंहिंदी बन ललाट की बिन्दी बना रही भू को सुहागिनि ।
जवाब देंहटाएं