नहीं रहा अब समय पुराना
ख़ुदगर्ज़ी
अब हुआ ज़माना
कैसे बुने कबीर चदरिया
उलझ
गया है ताना-बाना
पसरी
है सब जगह मिलावट
नकली पानी
नकली दाना
देशभक्त
हैं दुखी देश में
लूट
रहे मक्कार खज़ाना
आजादी
अभिशाप बन गयी
हुआ
बेसुरा आज तराना
दीन-धर्म
के फन्दे में है
मानवता
का अब अफसाना
“रूप”
देखकर दे देते वो
हमें भीख में कुछ नज़राना
|
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सोमवार, 17 नवंबर 2014
"ग़ज़ल-उलझ गया है ताना-बाना" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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जवाब देंहटाएंगुरुदेव! आपको सलाम
“रूप” देखकर दे देते वो
हमें भीख में कुछ नज़राना
बेहद छू जाने वाली पंक्तियाँ !!!!
ग़ालिब याद आ रहे हैं :
" बना कर फ़क़ीरों का हम भेस ग़ालिब
तमाशा-ए -एहले करम देखतें हैं .... "
दराज़ हो उम्र आपकी क़लम की -अमीन
हृदय स्पर्शी रचना sir :)
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति .....आभार!
जवाब देंहटाएंwaah bahut sundar ...... sarthak gajal, saty kaha aapne badhai
जवाब देंहटाएं