खुद को खुदा
समझ रहा, इंसान आज तो
मुट्ठी में है
सिमट गया जहान आज तो
कैसे सुधार हो
भला, अपने समाज का
कौड़ी के मोल
बिक रहा, ईमान आज तो
भरकर लिबास आ
गये, शेरों का भेड़िए
सन्तों के भेष में
छिपे, हैवान आज तो
जिसको नहीं है
इल्म वो इलहाम बाँटता
उड़ता बग़ैर
पंख के नादान आज तो
अब लोकतन्त्र
में हुई कौओं की मौज़ है
चिड़िया का घोंसला
हुआ सुनसान आज तो
ज़न्नत के
ख़्वाब को दिखा उपदेश बेचते
चलने लगी अधर्म
की दुकान आज तो
सन्तों को
सुरक्षा की ज़रूरत है किसलिए?
बौना हुआ है
देश का विधान आज तो
मिलते हैं सभी
ऐश के सामान जेल में
किस्मत से मिल गया यहाँ, भगवान आज तो
है नाम राम का मगर रावण के काम हैं
मुश्किल हुई है
“रूप” की पहचान आज तो
|
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शुक्रवार, 21 नवंबर 2014
"ग़ज़ल-मुश्किल हुई है रूप की पहचान" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंउम्दा रचना ।
जवाब देंहटाएंसही है आज राम केवल नाम का काम रावण का -सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंआईना !
मिलते हैं सभी ऐश के सामान जेल में
जवाब देंहटाएंकिस्मत से मिल गया यहाँ, भगवान आज तो
है नाम राम का मगर रावण के काम हैं
मुश्किल हुई है “रूप” की पहचान आज तो
गहरे अर्थ लिये सुंदर प्रस्तुति।
अच्छा लगा........
जवाब देंहटाएंसाधू संत महंत
महिमा अनंत
समझे तो कोई
कौन है छुपा
किस भेष में
किस काल में
किस देश में
भक्त अनंत
भक्ति अनंत
छल अनंत
फिर चोट
समाज पर
घाव अनंत
विश्वास टूटे
सही से भी
नज़र में फ़ेर
करता मनुज
ओह हो संत
कहाँ का संत