अपनी लीला जानता, खुद कोविद भगवान।
झूठे दावे कर रहा, लेकिन अब इंसान।।
नीला नभ नीला रहा, घटा नहीं चहुँ ओर।
अब तो बिन बरसात के, दादुर करते शोर।।
जब-जब बढ़ता धरा पर, अनाचार-अन्याय।
तब होता प्रारम्भ है, आशा का अध्याय।।
धर्म पराजित हो रहा, जीत रहा है पाप।
जनता होती है दुखी, बढ़ा जगत में ताप।।
अपनी सूरत देखकर, विदित हुआ परिणाम।
उगते सूरज को सभी, झुककर करें प्रणाम।। |
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रविवार, 24 जून 2018
दोहे "बढ़ा जगत में ताप" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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गुरु देव आप अतुल्य हैं l
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (25-06-2018) को "उपहार" (चर्चा अंक-3012) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी