पढ़ने के सपने कहाँ, फिर होंगे साकार।।
चमत्कार के फेर में, छन्द हो गये क्ल्ष्टि।
होते नहीं विशिष्ट वो, जो होते हैं श्लिष्ट।।
पूरब से होता शुरू, प्रतिदिन जीवन सत्र।
दिनचर्चा के भेजता, सूरज लिखकर पत्र।।
टंकण करने में लगा, काम जरूरी छोड़।
गुणा-भाग के फेर में, भूल गया हूँ जोड़।।
जिसके सिर पर ताज हो, होता उसका नाम।
जोड़-तोड़ से चल रहे, अब तो सबके काम।।
मुखपोथी पर बढ़ रहे, आभासी अनुबन्ध।
सोच-समझ कर कीजिए, लोगों से सम्बन्ध।।
आ जाते हैं जब कभी, पीड़ा के आयाम।
अधरों पर तब थिरकता, परमपिता का नाम।।
नहीं हमेशा फूलता, चोरी का व्यापार।
चोरी के बल पर नहीं, होता बेड़ा पार।।
श्रम करके भी श्रमिक तो, रहा मजे से दूर।
खाता नहीं हराम का, जो होता मजदूर।।
टाँग अड़ाने के लिए, टाँगों का उपयोग।
अच्छे लोगों पर सदा, लगते हैं अभियोग।।
खाते-पीते खूब है, मगर न करते काम।
अफसर-जनसेवक हुए, मानो अक्षरधाम।।
जिनका केवल रह गया, रिश्वतखोरी
काम।
वो जनसेवक कर रहे, सत्ता को बदनाम।।
कृषक हमारे देश में, करते चीख-पुकार।
तेल डालकर कान में, बैठी है सरकार।। |
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शुक्रवार, 8 जून 2018
दोहावली "छन्द हो गये क्ल्ष्टि" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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