जब भी लड़ने के लिए, लहरें हों तैयार।
कस कर तब मैं थामता, हाथों में पतवार।।
बैरी के हर ख्वाब को, कर दूँ चकनाचूर।
जब अपने हो सामने, हो जाता मजबूर।।
जब भी लड़ने के लिए, होता हूँ तैयार।
धोखा दे जाते तभी, मेरे सब हथियार।।
साधन हो पैसा भले, मगर नहीं है साध्य।
हिरती-फिरती छाँव को, मत समझो आराध्य।।
राज़-राज़ जब तक रहे, तब तक ही है राज़।
बिना छन्द के साज भी, हो जाता नाराज।।
वाणी में जिनकी नहीं, सच्चाई का अंश।
आस्तीन में बैठ कर, देते हैं वो दंश।।
बैठे गंगा घाट पर, सन्त और शैतान।
देना सदा सुपात्र को, धन में से कुछ दान।।
बन्द कभी मत कीजिए, आशाओं के द्वार।
मजबूती से थामना, लहरों में पतवार।।
लोकतान्त्रिक देश में, कहाँ रहा जनतन्त्र।
गलियारों में गूँजते, जाति-धर्म के मन्त्र।।।
हँसकर जीवन को जियो, रहना नहीं उदास।
नीरसता को त्याग कर, करो हास-परिहास।।
आड़ी-तिरछी हाथ में, होतीं बहुत लकीर।
कोई है राजा यहाँ, कोई बना फकीर।।
सीधे-सादे हों भले, लेकिन चतुर सुजान।
लोग उत्तराखण्ड के, रखते हैं ईमान।।
सुलगे जब-जब हृदय में, मेरे कुछ अंगार।
तब तुकबन्दी में करूँ, भावों को साकार।।
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रविवार, 3 जून 2018
विविध दोहे "हो जाता मजबूर" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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