योग हमारी सभ्यता, योग हमारी रीत।१।
अगर चाहते आप हो, पास न आये रोग।
रोज सुबह कर लीजिए, ध्यान लगा कर
योग।।
मत-मज़हब का है नहीं, जिससे कुछ
अनुबन्ध।
रखना ऐसे योग से, जीवन भर सम्बन्ध।।
मधुर कण्ठ से ही सदा, अच्छा लगता
गीत।
योग हमारी सभ्यता, योग हमारी रीत।२।
सन्त हमारे देश के, अगर छोड़ दें
भोग।
नहीं अदालत में चले, फिर उन पर
अभियोग।।
सत्य-सनातन योग की, महिमा बड़ी अनन्त।
योगी को ही समझिए, अब तो असली सन्त।।
जो सिखलाता योग को, वो होता है मीत।
योग हमारी सभ्यता, योग हमारी रीत।३।
धन से हो जाता नहीं, कोई बहुत अमीर।
जग में वो धनवान है, जिसका स्वस्थ
शरीर।।
दूषण फैला हर जगह, फैले घातक रोग।
शमन करेगा रोग को, जग में केवल योग।।
अपना आज सँवार लो, कर लो कर्म पुनीत।
योग हमारी सभ्यता, योग हमारी रीत।४।
बिगड़ गया वातावरण, बिगड़ा आज
चरित्र।
ऐसे में तो योग ही, तन-मन करे
पवित्र।।
दीर्घ आयु का विश्व में, एक मात्र
आधार।
तभी जगत ने लिया, योगदिवस स्वीकार।।
मौसम के उपहार हैं, गरमी-पावस-शीत।
योग हमारी सभ्यता, योग हमारी रीत।५।
सात सुरों के योग से, बन जाता संगीत।
योग हमारी सभ्यता, योग हमारी रीत।।
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बुधवार, 20 जून 2018
दोहागीत "योग हमारी सभ्यता, योग हमारी रीत" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी यह प्रस्तुति BLOG "पाँच लिंकों का आनंद"
( http://halchalwith5links.blogspot.in ) में
गुरुवार 21 जून 2018 को प्रकाशनार्थ 1070 वें अंक में सम्मिलित की गयी है।
प्रातः 4 बजे के उपरान्त प्रकाशित अंक अवलोकनार्थ उपलब्ध होगा।
चर्चा में शामिल होने के लिए आप सादर आमंत्रित हैं, आइयेगा ज़रूर।
सधन्यवाद।
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 21.06.18 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3008 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
अतिउत्तम सुंदर सीख देती अमूल्य रचना।
जवाब देंहटाएंसादर।
सुन्दर भाव पूर्ण रचना
जवाब देंहटाएं