उनके आने से दिलकश नज़ारे हुए मिल गई जब नज़र तो इशारे हुए -- आँखों-आँखों में बातें सभी हो गईं हो गये उनके हम वो हमारे हुए -- रस्मों-दस्तूर की तोड़कर बेड़ियाँ अब तो उन्मुक्त पानी के धारे हुए -- सारी कलियों को खिलना मयस्सर नहीं सूख जातीं कई मन को मारे हुए -- लोग खुदगर्ज़ आये-मिले चल दिये मतलबी यार सारे के सारे हुए -- जो दिलों की हैं धड़कन को पहचानते बेसहारों के वो ही सहारे हुए -- “रूप”-रस का है लोभी जमाना यहाँ चूस मकरन्द भँवरे किनारे हुए -- |
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रविवार, 3 जुलाई 2022
ग़ज़ल "चूस मकरन्द भँवरे किनारे हुए" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज सोमवार(०४-०७-२०२२ ) को
'समय कागज़ पर लिखा शब्द नहीं है'( चर्चा अंक -४४८०) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
गजब !
जवाब देंहटाएंवाह! उम्दा।
जवाब देंहटाएं