सूखी धरती-सूखा आँगन, दिवस गये अनुराग के। झूला डालें कहाँ आज हम, पेड़ कट गये बाग के।। गंगा-यमुना और शारदा, जूझ रहीं परिवेशों से, नेताओं का केवल नाता, है भाषण-उपदेशों से, पानी के सब सोत सूख गये, झरने झील तड़ाग के। झूला डालें कहाँ आज हम, पेड़ कट गये बाग के।। लोकगीत दम तोड़ रहे हैं, भौंडे राग-तरानों में, नई पौध आनन्द मनाती, आज निर्रथक गानों में, द्वार बन्द हो गये आज तो, इस कलयुगी दिमाग के। झूला डालें कहाँ आज हम, पेड़ कट गये बाग के।। राखी-तीजो होली के अब, गीत सुहाने नहीं रहे, पर्वत से उतरी सरितायें, गाथा किससे आज कहे, मौन हो गये आज तराने, प्रीत-रीत अनुराग के। झूला डालें कहाँ आज हम, पेड़ कट गये बाग के।। नवयुग की पागल आँधी ने, जीवन में डाला डेरा, ब्रह्मचर्य को आज जगत में, कामुकता ने है घेरा, छोड़ दिये हैं पथ सबने ही, त्याग और बैराग के। झूला डालें कहाँ आज हम, पेड़ कट गये
बाग के।। मीनारों में आज भावना, नहीं रही सदभाव की, जिन्ना की सन्तान बोलियाँ, बोल रहीं अलगाव की, टुकड़े करने को आतुर हैं, भारत के भूभाग के। झूला डालें कहाँ आज हम, पेड़ कट गये
बाग के।। |
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गुरुवार, 21 जुलाई 2022
गीत "पेड़ कट गये बाग के" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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वाह वाह वाह वाह वाह!!!!!!!
जवाब देंहटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 22 जुलाई 2022 को 'झूला डालें कहाँ आज हम, पेड़ कट गये बाग के' (चर्चा अंक 4498) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
वाह!!!
जवाब देंहटाएंसमसामयिक बहुत ही सुंदर लाजवाब गीत।
आपने दुखती रग पर हाथ रख दिया । बचपन में झूला झूला था । अब चित्र देखते हैं । घने पेङ की छाँव ढुंढते रहते हैं । शुक्र है, कुछ गीत ज़बाँ पर अब भी हैं । पङ गए झूले सावन रूत आई रे । राधे झूलन पधारो झुकि आए बदरा ।
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