था कभी ये 'रूप' ऐसा। हो गया है आज कैसा?? बालपन में खेल खेले। दूर रहते थे झमेले।। छा गई थी जब जवानी। शक्ल लगती थी सुहानी।। तब मिला इक मीत प्यारा। दे रहा था जो सहारा।। खुशनुमा उपवन हुआ था। धन्य तब जीवन हुआ था।। बढ़ी गई जब मोह-माया। तब बुढ़ापे ने सताया। जब हुई कमजोर काया। मौत का आया बुलावा।। चक्र है आवागमन का। जगत है जीवन-मरण का।। |
"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
Linkbar
फ़ॉलोअर
रविवार, 5 फ़रवरी 2012
"हो गया क्यों 'रूप' ऐसा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
लोकप्रिय पोस्ट
-
दोहा और रोला और कुण्डलिया दोहा दोहा , मात्रिक अर्द्धसम छन्द है। दोहे के चार चरण होते हैं। इसके विषम चरणों (प्रथम तथा तृतीय) मे...
-
लगभग 24 वर्ष पूर्व मैंने एक स्वागत गीत लिखा था। इसकी लोक-प्रियता का आभास मुझे तब हुआ, जब खटीमा ही नही इसके समीपवर्ती क्षेत्र के विद्यालयों म...
-
नये साल की नयी सुबह में, कोयल आयी है घर में। कुहू-कुहू गाने वालों के, चीत्कार पसरा सुर में।। निर्लज-हठी, कुटिल-कौओं ने,...
-
समास दो अथवा दो से अधिक शब्दों से मिलकर बने हुए नए सार्थक शब्द को कहा जाता है। दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि ...
-
आज मेरे छोटे से शहर में एक बड़े नेता जी पधार रहे हैं। उनके चमचे जोर-शोर से प्रचार करने में जुटे हैं। रिक्शों व जीपों में लाउडस्पीकरों से उद्घ...
-
इन्साफ की डगर पर , नेता नही चलेंगे। होगा जहाँ मुनाफा , उस ओर जा मिलेंगे।। दिल में घुसा हुआ है , दल-दल दलों का जमघट। ...
-
आसमान में उमड़-घुमड़ कर छाये बादल। श्वेत -श्याम से नजर आ रहे मेघों के दल। कही छाँव है कहीं घूप है, इन्द्रधनुष कितना अनूप है, मनभावन ...
-
"चौपाई लिखिए" बहुत समय से चौपाई के विषय में कुछ लिखने की सोच रहा था! आज प्रस्तुत है मेरा यह छोटा सा आलेख। यहाँ ...
-
मित्रों! आइए प्रत्यय और उपसर्ग के बारे में कुछ जानें। प्रत्यय= प्रति (साथ में पर बाद में)+ अय (चलनेवाला) शब्द का अर्थ है , पीछे चलन...
-
“ हिन्दी में रेफ लगाने की विधि ” अक्सर देखा जाता है कि अधिकांश व्यक्ति आधा "र" का प्रयोग करने में बहुत त्र...
पूरी ज़िन्दगी की दास्ताँ बहुत खूबसूरती से बयाँ कर दी।
जवाब देंहटाएंपुष्पों के द्वारा जीवन के सच का वर्णन ..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर..
kalamdaan.blogspot.in
फूल के रूपक में जिंदगी का सच ब्यान कर दिया
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
यही जीवन की सच्चाई है..
जवाब देंहटाएंहर सफ़र इन नियत चक्रों से गुज़रता
जवाब देंहटाएंजीवन का दार्शनिक सच
चित्रों सरीखी ही सुंदर रचना.
जवाब देंहटाएंbahut sundar
जवाब देंहटाएंजब तलक सूरज जलेगा
जवाब देंहटाएंसिलसिला यूँ ही चलेगा.
अति सुंदर
kuch hi panktiyon me jeevan aakkhyati likh di sach hai vaqt badhta jata hai har cheej ka swaroop badalta jata hai.phoolon ki tasveer ne kavita aur bhi rochak bana di hai.
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंआपके इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल दिनांक 06-02-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर भी होगी। सूचनार्थ
पुष्पों के द्वारा जीवन के सच का वर्णन
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
बहुत ही सुंदर प्रस्तुति ,अच्छी रचना
जवाब देंहटाएंनई रचना ...काव्यान्जलि ...: बोतल का दूध...
डराने का तरीका पसंद आया...बचपन से बुढ़ापे तक का सफ़र...फूलों के माध्यम से...
जवाब देंहटाएंबातों बातों में जीवन चक्र घुमा दिया।
जवाब देंहटाएंएक जन्मदिन गुज़रता है तो अक्सर ऐसे विचार घुमड़ते हैं मन में..
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी रचना..
सादर.
gulab ko sunder prateek roop me prayog kiya hai.
जवाब देंहटाएंअनामिका जी!
हटाएंरचना में गुलाब का नहीं गेंदे का सुमन लगाया है मैंने!
तौबा तौबा ये मौत की बात कहाँ से आगई ...अभी बहुत लंबी जिंदगी है
जवाब देंहटाएंचक्र है आवागमन का।
जवाब देंहटाएंजगत है जीवन-मरण का।।
अच्छाइयों की जैविक खाद और बुराइयों की खर पतवार हम यहीं छोड़ जातें हैं कर्म डोर से बंधे कूच कर जातें हैं ,खाली हाथ जाते हैं खाली हाथ आतें हैं .अलबत्ता जन्म के समय बच्चे की मुठ्ठी बंद होती है .तकदीर बंद होती है इस मुठ्ठी में . मुठ्ठी में जिसका निर्धारण अर्जित कर्म करतें हैं .
जब हुई कमजोर काया।
जवाब देंहटाएंमौत का आया बुलावा।।
चक्र है आवागमन का।
जगत है जीवन-मरण का।।
bilkul adbhud rachana ....aj kal aisi rachanayen kam hi dekhane ko milati hain ....badhai mayank ji.
जो रूप और शरीर आपका है ही नहीं
जवाब देंहटाएंतो मोह कैसा ? और आपकी आत्मा,
वह तो पल-पल सुन्दर होती जा रही
है फिर अफसोस कैसा ?
सुन्दर रचना,
सुन्दर प्रयास।
धन्यवाद।
आनन्द विश्वास
पहली दो पंक्तियों और चित्रों का तालमेल बहुत अच्छा है!
जवाब देंहटाएं