महँगी रोटी-सस्ती कार। खिसक गया जीवन आधार।। भीख माँग कर द्वारे-द्वारे, जा बैठे ऊँचे आसन पर। भोली जनता को भरमाया, इठलाते सत्ता-शासन पर। बापू की केंचुली पहनकर, पाकर वोट कर दिया वार। खिसक गया जीवन आधार।। बना दिया कुछ मक्कारों ने घोटालों वाला यह देश। उज्जवल लोकतन्त्र के तन पर लिख डाला काला सन्देश। चना-चबेना तक मँहगा है, निर्धन पर भारी सरकार। खिसक गया जीवन आधार।। धूप और बारिश-सर्दी में, कृषक अन्न को उपजाते हैं। श्रमिक बहा कर खून-पसीना, रैन-दिवस खटते जाते हैं। मौज उड़ाते इनके बल पर, अधिकारी, बाबू-मक्कार। खिसक गया जीवन आधार।। |
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शनिवार, 17 मार्च 2012
"खिसक गया जीवन आधार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत बढ़िया सार्थक रचना....
जवाब देंहटाएंवाह!!!
जवाब देंहटाएंसार्थक रचना...
सादर.
खिसक गया जीवन आधार।।
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सटीक बात कही है आपने ...उत्कृष्ट अभिव्यक्ति ।
किसे फ़ुर्सत है सुनने की
जवाब देंहटाएंसटीक लिखा है आपने ..
जवाब देंहटाएंइसके आगे अब "जीवन" ही खिसकेगा ...?
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएँ!
उज्जवल लोकतन्त्र के तन पर
जवाब देंहटाएंलिख डाला काला सन्देश।----यही तो हो रहा है
खूबसूरत रचना
आम आदमी आम हो गया।
जवाब देंहटाएंबना दिया कुछ मक्कारों ने
जवाब देंहटाएंघोटालों वाला यह देश।
उज्जवल लोकतन्त्र के तन पर
लिख डाला काला सन्देश।
बहुत सुंदर भाव अभिव्यक्ति,बेहतरीन सटीक रचना,......
MY RESENT POST... फुहार....: रिश्वत लिए वगैर....
खिसका कहाँ खतम ही हो गया .
जवाब देंहटाएंबना दिया कुछ मक्कारों ने
जवाब देंहटाएंघोटालों वाला यह देश।
उज्जवल लोकतन्त्र के तन पर
लिख डाला काला सन्देश।
चना-चबेना तक मँहगा है,
निर्धन पर भारी सरकार।
खिसक गया जीवन आधार।।
बिल्कुल सटीक और सार्थक प्रस्तुति।
खिसक गया जीवन आधार
जवाब देंहटाएंकिस विध माने तीज तिहार
बहुत ही सटीक कविता.
आम को चूस लिया, गुठली छोड़ दी.
जवाब देंहटाएंआप किसी विषय को इतने सरल ढंग से काव्य का रूप दे देते हैं कि ईर्ष्या होती है कि मैं ऐसा क्यों नहीं लिख पाता?
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया।
चारों ओर से घेरती विषम स्थितियों का प्रभावशाली चित्रण -जो सहज ही मन में उतर जाता है !
जवाब देंहटाएंसार्थक और सामयिक पोस्ट, आभार.
जवाब देंहटाएंधूप और बारिश-सर्दी में,
जवाब देंहटाएंकृषक अन्न को उपजाते हैं।
श्रमिक बहा कर खून-पसीना,
रैन-दिवस खटते जाते हैं।
मौज उड़ाते इनके बल पर,
अधिकारी, बाबू-मक्कार।
खिसक गया जीवन आधार।।
बेहतरीन रचना 'ढोल की पोल 'खोलती .
तीखा व्यंग्य।
जवाब देंहटाएंहम कितना भी चीखे चिल्लाये , महंगाई ये अपनी सुविधा से ही बढ़ाएंगे !
जवाब देंहटाएं