मनुष्य योनी,
श्रेष्ठ कहलाती है,
तभी तो, पतन
की ओर,
उन्मुख होती चली जाती है।
श्रेष्ठता की
चरम सीमा,
मनुष्य,
जीव जन्तुओं का
बना रहा है कीमा।
हे जीव-जन्तुओ!
तुम अपने राजा से
परिवाद क्यों नही करते?
न्याय की,
गुहार क्यों नही करते?
तभी इन निरीह जीवों की,
आवाज आती है,
जो हृदय को
हिला जाती है।
लेकिन हमारी शिकायत
सुनेगा कौन?
अन्धेर नगरी में,
सभी तो हैं मौन।
हमारा तो
अहित ही अहित है,
क्योंकि हमारा राजा भी तो,
हमीं को खाकर जीवित है।
|
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रविवार, 7 अप्रैल 2013
"हमारा राजा हमीं को खाकर जीवित है.." (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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बिलकुल सही लिखे आदरणीय,इस अँधेरी नगरी में सभी मौन हैं.बहुत ही सार्थक संदेस देती बेहतरीन रचना.
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही कहा ..बेहतरीन रचना.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर शव्दों में आपने प्रस्तुत किया है यथार्त को बहुत बहुत धन्यवाद
जवाब देंहटाएंवर्तमान परिस्थिति का बहुत सुन्दरता से चित्रण किया है आपने, सुन्दर एवं सटीक आदरणीय बधाई स्वीकारें.
जवाब देंहटाएंbahut sundar sach kaha aapne ..... samaj ka darpan dikh raha hai har panktiyon me .saadar .
जवाब देंहटाएंsachhayee se bhara yatharth
जवाब देंहटाएंवर्तमान परिस्थितियों का बहुत सुन्दर एवं सटीक चित्रण !!!
जवाब देंहटाएंRECENT POST: जुल्म
भाग्य के हर परिवर्तन का पल पल प्रबल रहे |
जवाब देंहटाएंजीवन के उज्जवल पुष्कर में खिलते कमल रहें |
पहले तो हर मौसम झंझावातों से ही बचा रहे-
झंझावात अगर आयें तो,जीवन सफल रहे ||
सुंदर चित्रण गुरु जी बधाई
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल सोमवार (08 -04-2013) के चर्चा मंच 1208 पर लिंक की गई है कृपया पधारें.आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है | सूचनार्थ
बेहद अर्थपूर्ण व्यंजना .शुक्रिया हमें चर्चा मंच के मयंक कौने में जगह देने के लिए .
जवाब देंहटाएंसही है गुरुवर-
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया .......शब्द नहीं है इसकी तारीफ़ के लिए
जवाब देंहटाएंसन्नाट कटाक्ष
जवाब देंहटाएं