अब तो फलता-फूलता,
जोड़-तोड़ का खेल।
चोरों की तो नाक
में, पड़ती नहीं नकेल।।
शब्दों तक सीमित
नहीं, उड़ा रहे हैं वाक्य।
अपने मतलब के लिए,
करते हैं शालाक्य।।
भावों के संसार
का, नहीं रहा लालित्य।
मक्कारी की बाढ़
में, बहता है साहित्य।।
खाली जेब लिए हुए,
करते जोड़-घटाव।
मौलिकता का काव्य
में, होने लगा अभाव।।
फूहड़पन का हो
रहा, अब तो नंगा नाच।
अच्छे-खासे लोग भी,
दिखने लगे पिशाच।।
सिसक रहे हैं देश
में, लुटे-पिटे दरबार।
गाँधी जी की नाव से, खिसक रहे सरदार।।
खूब बगावत कर रहे,
नये-पुराने लोग।
पाना है सब
चाहते, सत्ता-सुख का भोग।।
|
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गुरुवार, 10 सितंबर 2020
दोहे "लुटे-पिटे दरबार" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत खूब सर!
जवाब देंहटाएंभावों के संसार का, नहीं रहा लालित्य।
जवाब देंहटाएंमक्कारी की बाढ़ में, बहता है साहित्य।।
बहुत सुंदर रचना।
फूहड़पन का हो रहा, अब तो नंगा नाच।
जवाब देंहटाएंअच्छे-खासे लोग भी, दिखने लगे पिशाच।।
बहुत खूब,सादर नमन सर
खाली जेब लिए हुए, करते जोड़-घटाव।
जवाब देंहटाएंमौलिकता का काव्य में, होने लगा अभाव।।
वाह !!!
लाजवाब दोहे....।
यथार्थ के धरातल को उजागर करते दोहे
जवाब देंहटाएंसादर नमन सर