धीरे-धीरे छले जा रही है ग़ज़ल धीरे-धीरे। कठिन धीरे-धीरे, सरल धीरे-धीरे। जज़ीरों पे बैठा हुआ सोचता हूँ, होगा कभी तो फ़ज़ल धीरे धीरे। न क़ासिद न चिठिया, न पैग़ाम कोई, मगर दे रहे हैं, दख़ल धीरे-धीरे। करकता है जब कोई काँटा जिगर में, पुकारेंगे हम तब, शग़ल धीरे-धीरे छुरा घोंप डाला है, पीछे से उसने, नयन हो रहे हैं, सजल धीरे-धीरे। बदलने लगीं रंगतें “रूप” अपना, चली आ रही है, अजल धीरे-धीरे। शब्दार्थ : अजल-मौत, जज़ीरों-टापुओं, क़ासिद–पैग़ाम लाने और ले जाने वाला |
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सोमवार, 16 मई 2011
"धीरे-धीरे-ग़ज़ल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
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उर्दू अल्फ़ाज़ का सही और सटीक इस्तेमाल बता रहा है कि आपका उर्दू से भी कुछ न कुछ रिश्ता ज़रूर है.
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना .
शुक्रिया .
http://mushayera.blogspot.com/
आदरणीय शास्त्री जी
जवाब देंहटाएंनमस्कार !
....बहुत खूब काबिलेतारीफ.... सुंदर प्रस्तुति
गहन, गहरी और बहुत ही सुन्दर।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब.....
जवाब देंहटाएंछुरा घोंप डाला है, पीछे से उसने,
जवाब देंहटाएंनयन हो रहे हैं, सजल धीरे-धीरे।
पीछे से वार करने वाले को यु छोड़ देना ठीक नही शास्त्री जी ...बहुत गहरी बात की है आपने ...
छुरा घोंप डाला है, पीछे से उसने,
जवाब देंहटाएंनयन हो रहे हैं, सजल धीरे-धीरे।
बहुत उम्दा...
छुरा घोंप डाला है, पीछे से उसने,
जवाब देंहटाएंनयन हो रहे हैं, सजल धीरे-धीरे।
कया खूब कहा है
वाह!! कमाल!!!!
जवाब देंहटाएंग़ज़ल एक बड़ी नाज़ुक सिन्फे-सुख़न है.इसकी जान इसकी नाज़ुक मिज़ाजी में है. इसे जितने कोमल हाथों से छुआ आयेगा उतना ही ये किसी महबूबा की तरह पास आती जायेगी.
जवाब देंहटाएंधीरे-धीरे रदीफ़ पढ़कर एक फ़िल्मी गाना ज़बान पर अचानक आ गया.गाना है:-
उठेगी तुम्हारी नज़र धीरे-धीरे.
मोहब्बत का ये ही असर धीरे-धीरे.
इस नज़रिए से देखिएगा.
न क़ासिद न चिठिया, न पैग़ाम कोई,
जवाब देंहटाएंमगर दे रहे हैं, दख़ल धीरे-धीरे।
शास्त्री जी आपका ये “रूप” भी शुभानअल्लाह!
दिल में बस गई यह ग़ज़ल धीरे धीरे,
जवाब देंहटाएंखूब बढ़िया शब्द चयन और उससे सजी हुई एक बढ़िया रचना...शास्त्री जी सुंदर रचना प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद
आपकी रचना का यही तो कमाल है कि करता है देखो असर धीरे धीरे!!
जवाब देंहटाएंछले जा रही है ग़ज़ल धीरे-धीरे।
जवाब देंहटाएंकठिन धीरे-धीरे, सरल धीरे-धीरे।
बहुत ही सुन्दर।
बदलने लगीं रंगतें “रूप” अपना,
जवाब देंहटाएंचली आ रही है, अजल धीरे-धीरे।
भाई जी ऐसा न कहिये.'अजल' धीरे धीरे आकर क्या करेगी और क्या बिगाड़ेगी आपका.आपने तो 'अक्षर ब्रह्म'से नाता जोड़ा हुआ है.आप हर रंगत का रूप बदलने में स्वयं समर्थ हैं.
sunder ghazal
जवाब देंहटाएंछुरा घोंप डाला है, पीछे से उसने,
नयन हो रहे हैं, सजल धीरे-धीरे।
bahut khoob
वाह जी बहुत सुंदर रचना.
जवाब देंहटाएंधीरे धीरे रे मना धीरे .....आपके ये धीरे वाले भाव बहुत गहरे है भाई जी
जवाब देंहटाएंबहुत खूब लिखा है आपने
आदरणीय शास्त्री जी! बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
आपकी गजलें भी बेमिसाल हैं शास्त्री जी
जवाब देंहटाएंछुरा घोंप डाला है, पीछे से उसने,
जवाब देंहटाएंनयन हो रहे हैं, सजल धीरे-धीरे।
आदरणीय शास्त्री जी नमस्कार !
देर से आने के लिए क्षमा चाहूँगा.
ऊपर लिखी लाइनें बहुत ही अच्छी हैं , और वैसी ही अच्छी आपकी ये पोस्ट
ह्रदय से आभार ,इस अप्रतिम रचना के लिए...
आप मेरे ब्लॉग पे पधारे इस के लिए बहुत बहुत धन्यवाद्
और आशा करता हु आप मुझे इसी तरह प्रोत्सन करते रहेगे
आज आप के इस रूप के दर्शन भी हो गए
जवाब देंहटाएंwah. bahut pasand aayee.
जवाब देंहटाएंन क़ासिद न चिठिया, न पैग़ाम कोई,
जवाब देंहटाएंमगर दे रहे हैं, दख़ल धीरे-धीरे।
waah
बडी गहरी गज़ल लिखी है……………वाह्…………बहुत ही सुन्दर्।
जवाब देंहटाएंआदरणीय शास्त्री जी,
जवाब देंहटाएंएक नाजुक भाव अभिव्यक्ति!!
एक एक शेर ला-जवाब
mujhe ghazal humesha lubhaati hain.man khush ho gaya aapki yeh ghazal padh kar.
जवाब देंहटाएंbahut khoob...
जवाब देंहटाएंछले जाने पर अभी तक गज़ल या कविता का ही सहारा था,वो भरम भी आप तोड़ रहे हैं....!
जवाब देंहटाएंआखिर इस छलना से कब तक निजात मिलेगी ?
'न क़ासिद न चिठिया, न पैग़ाम कोई,
जवाब देंहटाएंमगर दे रहे हैं, दख़ल धीरे-धीरे।'
....वाह!.....अंदाजे-बयां और.
-----देवेंद्र गौतम
छुरा घोंप डाला है, पीछे से उसने,
जवाब देंहटाएंनयन हो रहे हैं, सजल धीरे-धीरे।
बदलने लगीं रंगतें “रूप” अपना,
चली आ रही है, अजल धीरे-धीरे।bahut hi sunder gajal.shabdon ka sunder chayan.dil ko choo gai aapki gajal.badhaai aapko.
वाह! शास्त्री जी! बहुत खूब लिखा है आपने! कमाल का ग़ज़ल ! आपकी लेखनी की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है!
जवाब देंहटाएं