सज रहे हैं ख्वाब, जैसे हों घरौंदे रेत में। बाढ़-बारिश और हवा पा, बदल जाते रेत में।। मोम के सुन्दर मुखौटे, पहन कर निकले सभी, बदल लेते रूप अपना, धूप जब निकली कभी, अब हुए थाली के बैंगन, थे कभी जो खेत में। बाढ़-बारिश और हवा पा, बदल जाते रेत में।। हो रही वादाख़िलाफी, रो रहे सम्बन्ध हैं, हाट का रुख़ देखकर ही, हो रहे अनुबन्ध हैं, नज़र में कुछ और है, कुछ और ही है पेट में। बाढ़-बारिश और हवा पा, बदल जाते रेत में।। जो स्वयं अज्ञान है, वो क्या परोसेगा हुनर, बेग़ैरतों की लाज को, ढक पाएगी कैसे चुनर, जिग़र में जो कुछ भरा है, वही देगा भेंट में। बाढ़-बारिश और हवा पा, बदल जाते रेत में।। |
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बुधवार, 25 मई 2011
"गीत-रेत के घरौंदे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
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जो स्वयं अज्ञान है,वो क्या परोसेगा हुनर-
जवाब देंहटाएंbilkul sahi kaha hai aapne par aisa hi ho raha hai .
हो रही वादाख़िलाफी,
जवाब देंहटाएंरो रहे सम्बन्ध हैं,
हाट का रुख़ देखकर ही,
हो रहे अनुबन्ध हैं,
सच को उभारती हुई पंक्तियाँ.
सादर
जो स्वयं अज्ञान है,वो क्या परोसेगा हुनर,
जवाब देंहटाएंबेग़ैरतों की लाज को,ढक पाएगी कैसे चुनर,
जिग़र में जो कुछ भरा है,वही देगा भेंट में।
बहुत सुंदर और यथार्थ कहा है आपने, जिस अर्थ को समेटे है वह सब की समझ आ जाय तो रूप ही कुछ और हो .
शानदार अभिव्यक्ित
जवाब देंहटाएंहो रही वादाख़िलाफी,
जवाब देंहटाएंरो रहे सम्बन्ध हैं,
हाट का रुख़ देखकर ही,
हो रहे अनुबन्ध हैं,
नज़र में कुछ और है,
कुछ और ही है पेट में।
बाढ़-बारिश और हवा पा,
बदल जाते रेत में।।
क्या बात है शास्त्री जी .....बहुत बढियां
जो स्वयं अज्ञान है,
जवाब देंहटाएंवो क्या परोसेगा हुनर,
बेग़ैरतों की लाज को,
ढक पाएगी कैसे चुनर,
जिग़र में जो कुछ भरा है,
वही देगा भेंट में।
bahut prabhaavshali rachna pesh ki hai aapne.sach ke bahut kareeb.aabhar.
नज़र में कुछ और है,
जवाब देंहटाएंकुछ और ही है पेट में।
बाढ़-बारिश और हवा पा,
बदल जाते रेत में।।
bilkul sahi kaha aapne .yathart batati hui sunder rachanaa.badhaai aapko.
please visit my blog and leave the comments also.
bahut khoobsurat rachna babu ji...aabhar..
जवाब देंहटाएंजो स्वयं अज्ञान है,
जवाब देंहटाएंवो क्या परोसेगा हुनर,
बेग़ैरतों की लाज को,
ढक पाएगी कैसे चुनर..
वाह ! बहुत खूब लिखा है आपने! लाजवाब अभिव्यक्ति!
जीवन की विसंगतियों को बखूबी बयां करती एक कविता ! आभार !
जवाब देंहटाएंbahut hee khoobsurat geet likha hai guru ji!
जवाब देंहटाएंजो स्वयं अज्ञान है,वो क्या परोसेगा हुनर,.....
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर और यथार्थ कहा है आपने
जो स्वयं अज्ञान है,
जवाब देंहटाएंवो क्या परोसेगा हुनर,
बेग़ैरतों की लाज को,
ढक पाएगी कैसे चुनर,
वाह शास्त्री जी,बहुत सुन्दर!
गीत की सारी पंक्तियाँ बेजोड़ हैं!
सत्य झरते शब्द।
जवाब देंहटाएंजो स्वयं अज्ञान है,वो क्या परोसेगा हुनर-
जवाब देंहटाएंमगर आजकल तो वही ज्ञान और हुनर परोस रहे है|
हो रही वादाख़िलाफी,
जवाब देंहटाएंरो रहे सम्बन्ध हैं,
हाट का रुख़ देखकर ही,
हो रहे अनुबन्ध हैं
बहुत अच्छा लिखा है...
हो रही वादाख़िलाफी,
जवाब देंहटाएंरो रहे सम्बन्ध हैं,
हाट का रुख़ देखकर ही,
हो रहे अनुबन्ध हैं,
....
कटु सत्य को रेखांकित करती बहुत संदर रचना..आभार
परम आदरनीय ,डॉ.साहेब "बदल जातें हैं रेतमें ...."रचना पढ़ी सब कुछ रेत में ही बदलना है ये सत्य है .बात केवल स्वीकार करने की रह जाती है सर .अछि रचना के लिए आपको व आपकी कलम को साधुवाद
जवाब देंहटाएंwaah 'mayank' ji !
जवाब देंहटाएंbahut achha !
मोम के सुन्दर मुखौटे,
जवाब देंहटाएंपहन कर निकले सभी,
बदल लेते रूप अपना,
धूप जब निकली कभी
वाह! बहुत सुंदर प्रयोग।
यथार्थ का सुन्दर चित्रण किया है।
जवाब देंहटाएंअब हुए थाली के बैंगन,
जवाब देंहटाएंथे कभी जो खेत में।
इस रंग बदलती दुनिया में आपके ख्वाब ही हकीकत हैं...
हाट का रुख देखकर हो रहे अनुबंध हैं ...
जवाब देंहटाएंमारक पंक्तियाँ हैं ...
क्या बात है,,,बहुत उम्दा!
जवाब देंहटाएंहो रही वादाख़िलाफी,
जवाब देंहटाएंरो रहे सम्बन्ध हैं,
हाट का रुख़ देखकर ही,
हो रहे अनुबन्ध हैं,
नज़र में कुछ और है,
कुछ और ही है पेट में।
बाढ़-बारिश और हवा पा,
बदल जाते रेत में।
बेहद सटीक पंक्तियाँ.