घर और परिवार बन्धु-बान्धव और रिश्तेदार आदर और सत्कार सभी कुछ तो है लेकिन कभी-कभी आभास होता है कि कुछ खालीपन है और यहाँ भी स्वार्थ का ही अपनापन है -- जालजगत पर कदम बढ़ाया तो यहाँ भी साहित्य-सरोवर नज़र आया किन्तु यह आभासी संसार है सिर्फ दूर-दूर का ही प्यार है लिखो तो वाह-वाही और आभार है न लिखो तो कोई पूछने वाला भी नहीं है जिन्दा हो या सिघार गये हो! जीत गये हो या हार गए हो! -- यह सब देख कर मन ऊब गया है और गहरी सोच में डूब गया है -- जब मैं गया पहाड़ों में, खेतों में जंगल में-उपवन में तब... चैन और सुकून मिला इस वैरागी मन में -- यहाँ कोई स्वार्थ नहीं है कोई बैर-भाव नहीं है सहज मुस्कान है यहाँ आकर तो मिट गई सारी थकान है -- काश् हम भी सुमन होते झाड़ी के होते या बगीचे के होते क्या फर्क पड़ता? इन्सानों की बस्ती के होते या जंगली होते.... लेकिन होते तो... खुशियाँ बाँटने वाले फूल ही.........! |
"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
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शुक्रवार, 5 अगस्त 2011
"जंगली होते...." (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
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etnui sundar
जवाब देंहटाएंaap ki
bahv aur soch
wow
दुनिया की दुनियादारी देख उदास होता मन ....!!
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना ....!!
बहुत सुन्दर...
जवाब देंहटाएंसंवेदनशील रचना.. बहुत सुन्दर !
जवाब देंहटाएंदुनिया की जो हालत है उससे मन दुखी ही होता है...
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूबसूरत रचना लिखा है आपने! शानदार प्रस्तुती!
जवाब देंहटाएंsundar abhivaykti....
जवाब देंहटाएंकाश् हम भी सुमन होते
जवाब देंहटाएंझाड़ी के होते
या बगीचे के होते
क्या फर्क पड़ता?
इन्सानों की बस्ती के होते
या जंगली होते....
लेकिन होते तो...
खुशियाँ बाँटने वाले
फूल ही.........!
बहुत सुन्दर...बधाई
bahut hi bhaav poorn sochne par majboor karti rachna.kuch kavitaon se alag hatke.badhaai.
जवाब देंहटाएंkhoobsoorat!!
जवाब देंहटाएंकरते हैं हम दुआ ये, बुद्धि कर दो कम |
जवाब देंहटाएंबुद्धि से ही बढ़ रहे, दुनिया के सब गम ||
छोटी - छोटी भंगिमा, भावों का सन्देश,
कर नंगा सबसे कहे, किधर प्रेम कित द्वेष ||
याददाश्त लम्बी हुई, भूले न अपमान |
स्वार्थ किन्तु पल में परे, कर दे सब एहसान ||
है सच्चा अब भी भला, बनमानुस भगवान् |
दुनियादारी से बचा, यही सही इंसान ||
वाह........
जवाब देंहटाएंशानदार !
एक आत्मिक एहसास !
इस सप्ताह ब्लॉगजगत और ब्लागरों के व्यवहार, गुट ,लेखनी और इसके भविष्य कि चिंता करते बहुत से लोग देखे गए. बावजूद सामने से दिखने वाले प्रेम के यहाँ के ब्लोग्गेर्स इस आभासी दुनिया के तौर तरीके से बहुत अधिक संतुष्ट नहीं दिखते.
जवाब देंहटाएं.
हम चाहे जंगली होते, पौधे होते लेकिन होते आपस मैं प्रेम बांटने वाले. उच्च विचार और मैं सहमत.
bahut hi acchi post sacchiaur acchii batain....khubsurat achna
जवाब देंहटाएंdr.saheb humen hindi wale fool th,ab angrezi wale fool ban kar rah gaye hain satik likha aapane
जवाब देंहटाएंदादा उत्तम पुरूष कर्मण्येवाधिकारस्ते की तर्ज पर चलता है। आप भी चले चलें कांटे न आये जीवन मे तो मजा भी क्या है। बाकि प्रकृति की तो बात ही क्या है
जवाब देंहटाएंआभासी तो आभासी है,
जवाब देंहटाएंजीवन की नदिया प्यासी है।
bahut sundar ..shastri ji..sach kha ..kash suman hote ham ..to chahe khin bhi khilte kantili jhadiyon pe ya kahin aur ...
जवाब देंहटाएंइन्सानों की बस्ती के होते
जवाब देंहटाएंया जंगली होते....
लेकिन होते तो...
खुशियाँ बाँटने वाले
फूल ही.........!
बढिया लिखा !!
जीवन और जगत के सरोकारों व्यापारों से जुडी मेरी तेरी उसकी सबकी बात ,काश हम भी फूल होते ,कुछ कूल होते अपनी ही खाद बन हवा पानी को ठीक रखते .कृपया यहाँ भी कृतार्थ करें .http://veerubhai1947.blogspot.com/
जवाब देंहटाएंhttp://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/
वन का जीवन मनोहारी लगता है पर चंद रोज चूंकि हम शहरी जीवन के अभ्यस्त जो हो चुके हैं - आय मीन आभासी जीवन के।
जवाब देंहटाएंजहाँ तक बात अपने लिखे को पढ़ने की है, जिसे पढ़ना होता है, वही पढ़ता है शास्त्री जी :)))))))))))))))))))))))))))
ये पहाड़ पर जाने का बदलाव है क्या?
जवाब देंहटाएंजो भी हो सुंदर अभिव्यक्ति है ..
यही है ज़िन्दगी की हकीकत्…………कहीं भी जाइये कहीं भी रहिये कहीं कोई अपना नही होता जब साथ रहने वाले अपने नही होते अपने बच्चे अपने नही रहते तो दूसरी दुनिया मे कहाँ किसी से अपने पन की उम्मीद की जा सकती है…………जिस दिन इंसान इस सच्चाई को स्वीकार लेगा उस दिन से उसके जीवन मे समरसता आ जाती है और फिर वो दुखी नही होता…………उसे पता चल जाता है कि यहाँ कोई नही है अपना ये जग जोगी वाला फ़ेरा।
जवाब देंहटाएंउदासीन दुनिया की झलक को सुन्दर शब्दों में बाँधा ..आभार..
जवाब देंहटाएंभावनाओं को बहुत सजीव चित्रण किया है
जवाब देंहटाएं