आज फिर टिपियाने में गीत बन गया। मन मृदुल मोम सा बन पिघलता रहा।।
मन में सोये सुमन खिलखिलाने लगे, सुख सँवरता रहा, दर्द जलता रहा। मन मृदुल मोम सा बन पिघलता रहा।।
जब दिखाई दिये चटपटा सा लगा, ताप बढ़ता रहा, तन सुलगता रहा। मन मृदुल मोम सा बन पिघलता रहा।।
शैल-खिखरों से गंगा निकलती सदा, स्वप्न मेरा हकीकत में ढलता रहा। मन मृदुल मोम सा बन पिघलता रहा।। |
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शुक्रवार, 7 अगस्त 2009
‘‘मन मृदुल मोम सा बन पिघलता रहा’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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waahhhhhhhhh...
जवाब देंहटाएंEk Ek shabd dil ko choo gaya....!
भावनाओं का बहुत अच्छा प्रस्तुतीकरण.. हैपी ब्लॉगिंग
जवाब देंहटाएंवाह बहुत सुंदर. शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम.
बहुत सुंदर! मैं तो आपकी इस शानदार कविता को पड़कर निशब्द हो गई!
जवाब देंहटाएंमखमली खाब आँ खों मे चलता रहा
जवाब देंहटाएंमन मृदु कोमल सा पिघलता रही बहुत सुन्दर भावनाओं से ओत प्रोत कविता है बधाई
अरे वाह, आपने तो सबके मन को पिघला दिया.
जवाब देंहटाएंman mridul mom sa ban pighalta raha
जवाब देंहटाएंaap naino mein swapn ban palte rahe
dil machalta raha,khwab mahakta raha
saanjh dhalti rahi,shamma jalti rahi
man mridul mom sa ban pighalta raha
waah.......aaj to bahut hi sashakt prastutikaran hai.........dil ko choo gayi kavita.
Sundar.
जवाब देंहटाएं{ Treasurer-T & S }
सुन्दर स्नेह राग !
जवाब देंहटाएंउर के मन्दिर में ही प्रीत पलती सदा,
जवाब देंहटाएंशैल-खिखरों से गंगा निकलती सदा,
स्वप्न मेरा हकीकत में ढलता रहा।
मन मृदुल मोम सा बन पिघलता रहा।।
bahut pyare bhav badhai!
उर के मन्दिर में ही प्रीत पलती सदा,
जवाब देंहटाएंशैल-खिखरों से गंगा निकलती सदा,
स्वप्न मेरा हकीकत में ढलता रहा।
मन मृदुल मोम सा बन पिघलता रहा।।
वाह!! कितनी सहज और प्रभावशाली अभिव्यक्ति. साधू।