वक्त सही हो तो सारा, संसार सुहाना लगता है। बुरे वक्त में अपना साया भी, बेगाना लगता है।। यदि अपने घर व्यंजन हैं, तो बाहर घी की थाली है, भिक्षा भी मिलनी मुश्किल, यदि अपनी झोली खाली है, गूढ़ वचन भी निर्धन का, जग को बचकाना लगता है। बुरे वक्त में अपना साया भी, बेगाना लगता है।। फूटी किस्मत हो तो, गम की भीड़ नजर आती है, कालीनों को बोरों की, कब पीड़ नजर आती है, कलियों को खिलते फूलों का रूप पुराना लगता है। बुरे वक्त में अपना साया भी, बेगाना लगता है।। धूप-छाँव जैसा, अच्छा और बुरा हाल आता है, बारह मास गुजर जाने पर, नया साल आता है, खुशियाँ पा जाने पर ही अच्छा मुस्काना लगता है। बुरे वक्त में अपना साया भी, बेगाना लगता है।। |
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रविवार, 23 अगस्त 2009
‘‘बुरे वक्त में अपना साया भी, बेगाना लगता है’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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क्या बात है,। बहुत सुन्दर रचना, लाजवाब..............
जवाब देंहटाएंबहुत अनुपम गीत हैजी.........
जवाब देंहटाएंबाँच कर आनन्द आया..........
प्रणाम !
जय गणेश !
डाक्टर साहब जीवन का यह कटु सत्य है गीत के माध्यम से आपने जिसे अभिव्यक्त किया है । लेकिन यह गीत या कविता या आशा का संचार करने वाला साहित्य ही है जो बुरे वक्त में भी अच्छा लगता है ।
जवाब देंहटाएंअच्छी और सच्ची रचना।
जवाब देंहटाएंजीवन की सच्चाई को आपने बड़े ही सुंदर रूप से व्यक्त किया है! बहुत खूब!
जवाब देंहटाएंशायद ये रचना मैने पहले भी पढी है सुन्दर अभिव्यक्ति है बधाई
जवाब देंहटाएंनिर्मला बहिन जी!
जवाब देंहटाएंमैं तो नित नई रचना लिखता हूँ।
आपने ये कहाँ से पढ़ ली होगी।
बहुत सुंदर रचना !!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना. शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम.
डॉ. शास्त्री साहब,
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छा गीत है, इस गीत में एक बंद मुझे किसी दर्शन शास्त्र के सिद्धाँत सा लगा :-
कालीनों को बोरों की, कब पीड़ नजर आती है,
कलियों को खिलते फूलों का रूप पुराना लगता है।
नमन!!!
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
बहुत सुंदर रचना ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना.अच्छी लगी.
जवाब देंहटाएंधूप-छाँव जैसा, अच्छा और बुरा हाल आता है,
जवाब देंहटाएंबारह मास गुजर जाने पर, नया साल आता है,
बहुत सुन्दर. जीवन के गहरे भाव.
bahut hi khoobsoorat rachna hai......laybaddh,lajawaab.
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