हूर कब लंगूर को पहचानती है। चश्म केवल नूर को ही जानती है।। गीत और मल्हार के स्वर गौण हैं, गजल और कव्वालियाँ भी मौन हैं, नयी पीढ़ी पॉप को ही मानती है। चश्म केवल नूर को ही जानती है।। ढंग जीने का हुआ बिल्कुल निराला, दोस्त देता जहर का पल-पल निवाला, वैर शाखाएँ शजर से ठानती है। चश्म केवल नूर को ही जानती है।। कल्पनाओं को नही आकार मिलता, ढूँढने से भी नही बेगार मिलता, खाक दर-दर की जवानी छानती है। चश्म केवल नूर को ही जानती है।। |
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शनिवार, 8 अगस्त 2009
‘‘हूर कब लंगूर को पहचानती है’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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नयी पीढ़ी पॉप को ही मानती है।
जवाब देंहटाएंवाह ! बहुत खूब शास्त्री जी सुंदर ...
वाह, बहुत सुन्दर!
जवाब देंहटाएंक्या बात है..
जवाब देंहटाएंबहुत सही!!
जवाब देंहटाएंaapko baanch kar sadaiv aanand milta hai
जवाब देंहटाएंaaj bhi khoob mila......
badhaai !
ढंग जीने का हुआ बिल्कुल निराला,
जवाब देंहटाएंदोस्त देता जहर का पल-पल निवाला,
वैर शाखाएँ शजर से ठानती है।
चश्म केवल नूर को ही जानती है।।
waah! bahut sundar bhav.badhai!
इच्छा हो तो पहचान भी ले?:)
जवाब देंहटाएंरामराम.
वाह, वाह साहब,बहुत खूब.
जवाब देंहटाएंbahut hi badhiya likha hai..........sab kuch badal gaya hai aaj.........jeene ka dhang,soch , nazariya..........sab ,phir to yahi hona hai............sahi kaha aapne.
जवाब देंहटाएंआजकल सूरत या सीरत से कोई मतलब नहीं रहा। हर चीज का केन्द्र पैसा बन गया है। तो हूर को भी वही शक्ल प्यारी है, जिसकी जेब भारी है।
जवाब देंहटाएंshastri ji kisi bhi linko lekar aapko geet rachane men maharat hai.
जवाब देंहटाएंhamesha ki tarah ye hi umda rachana hai.
badhai.
बहुत उम्दा।
जवाब देंहटाएंमुब्रारकवाद।
मयंक जी।
जवाब देंहटाएंगीत अच्छा बन गया है।
बधाई।
हूर कब लंगूर को पहचानती है।
जवाब देंहटाएंचश्म केवल नूर को ही जानती है।।
मयंक जी।
बहुत खूब लिखा है।
बधाई।
कल्पनाओं को नही आकार मिलता,
जवाब देंहटाएंढूँढने से भी नही बेगार मिलता,
खाक दर-दर की जवानी छानती है।
चश्म केवल नूर को ही जानती है।।
बढ़िया है।
बहुत बधाई।
बहुत बढ़िया लिखा है आपने ! आपकी हर एक रचनाएँ बेहद सुंदर है!
जवाब देंहटाएंदोस्त देता हर पल जहर का निवाला ...फिर भी कहलाता दोस्त ही है ..!!
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