समय के साथ में हम भी, बदल जाते तो अच्छा था। घनी ज़ुल्फों के साये में, ग़ज़ल गाते तो अच्छा था। सदाएँ दे रहे थे वो, अदाओं से लुभाते थे, चटकती शोख़ कलियों पर, मचल जाते तो अच्छा था। पुरातनपंथिया अपनी, बनी थीं राह का रोड़ा, नये से रास्तों पर हम, निकल जाते तो अच्छा था। मगर बन गोश्त का हलवा, हमें खाना नहीं आया, सलीके से गरीबों को, निगल जाते तो अच्छा था। मिली सौहबत पहाड़ों की, हमारा दिल हुआ पत्थर, तपिश से प्रीत की हम भी, पिघल जाते तो अच्छा था। जमा था “रूप” का पानी, हमारे घर के आँगन में, सुहाने घाट पर हम भी, फिसल जाते तो अच्छा था। |
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रविवार, 27 मई 2012
"बदल जाते तो अच्छा था" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बेहतरीन ग़ज़ल...
जवाब देंहटाएंबेहतरीन ..
जवाब देंहटाएंक्या बात है!!
जवाब देंहटाएंआपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 28-05-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-893 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
मगर बन गोश्त का हलवा, हमें खाना नहीं आया,
जवाब देंहटाएंसलीके से गरीबों को, निगल जाते तो अच्छा था। लाजवाब शेर। बधाई इस सुन्दर गज़ल के लिये।
उन्हें देखकर सम्हल जाते तो अच्छा था...
जवाब देंहटाएंउन्हें देखकर सम्हल जाते तो अच्छा था...
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति,,,,,
RECENT POST ,,,,, काव्यान्जलि ,,,,, जिस्म महक ले आ,,,,,
बहुत सुंदर !!
जवाब देंहटाएंkuch panktiyaan aur likh dete guru ji to achha tha
जवाब देंहटाएंलाजबाब ,लाजबाब ,लाजबाब ग़ज़ल
जवाब देंहटाएंyou ok steven sorry iv took so long i think this is the web address
जवाब देंहटाएंfiling address , there very helpfull ,tell them H hemtom give you there number
जमा था “रूप” का पानी, हमारे घर के आँगन में,
जवाब देंहटाएंसुहाने घाट पर हम भी, फिसल जाते तो अच्छा था।
रोमांच से भरपूर चित्त लुभाऊ रचना ,गर हम भी लिख पाते तो कितना अच्छा था .
और यहाँ भी दखल देंवें -
ram ram bhai
सोमवार, 28 मई 2012
क्रोनिक फटीग सिंड्रोम का नतीजा है ये ब्रेन फोगीनेस
http://veerubhai1947.blogspot.in/
उम्दा ...बहुत खूब
जवाब देंहटाएंदिखाई राह कितनों को, जगा सोवे हुवे मानव -
जवाब देंहटाएंभलाई देश की करके, नया यह राग क्यूँ छेड़ा ?
अजब हुए बदलाव हले, परिवर्तन की आड़|
जवाब देंहटाएंफूल दिखा कर महकते,डी काँटों की बाड़||
Bahut accha
जवाब देंहटाएं