मित्रों...!
आज अपनी एक पुरानी बाल कविता
प्रस्तुत कर रहा हूँ!
जब गरमी की ऋतु आती है!
लू तन-मन को झुलसाती है!!
तब आता तरबूज सुहाना!
ठण्डक देता इसको खाना!!
यह बाजारों में बिकते हैं!
फुटबॉलों जैसे दिखते हैं!!
एक रोज मन में यह ठाना!
देखें इनका ठौर-ठिकाना!!
पहुँचे जब हम नदी किनारे!
बेलों पर थे अजब नजारे!!
कुछ छोटे कुछ बहुत बड़े थे!
जहाँ-तहाँ तरबूज पड़े थे!!
इनमें से था एक उठाया!
बैठ खेत में इसको खाया!!
इसका गूदा लाल-लाल था!
ठण्डे रस का भरा माल था!!
|
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रविवार, 19 मई 2013
"ठण्डक देता इसको खाना" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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देख कर तबियत में ठण्डक आ गयी..
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर बाल कविता का सृजन.गर्मियों में तरबूज तो बहुत ही लाभप्रद होता ही है.आभार आपका.
जवाब देंहटाएं.सार्थक भावनात्मक अभिव्यक्ति .बधाई .आभार . मेरी किस्मत ही ऐसी है .
जवाब देंहटाएंसाथ ही जानिए संपत्ति के अधिकार का इतिहास संपत्ति का अधिकार -3
बहुत रसदार बाल कविता...
जवाब देंहटाएंवाह, क्या कहने
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति .बधाई . . हम हिंदी चिट्ठाकार हैं.
तरावट देती कविता शास्त्री जी ,मन ललचा गया तरबूज देख कर ............
जवाब देंहटाएंदेखकर ही मुहं में पानी आ गया !!
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना !!
बहुत बढ़िया प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ का अनुसरण कर बहुत कुछ देखें और पढें
mbahut mast prastuti .....
जवाब देंहटाएं