मित्रों आज प्रस्तुत कर रहा हूँ,
गाम्य जीवन से जुड़े अपने तीन गीत।
जो मेरे काव्य संग्रह “सुख का सूरज” में
प्रकाशित हो चुके हैं।
(१)
शुक्रवार, 13 मार्च 2009
"टूटा स्वप्न"
मेरे गाँव, गली-आँगन में, अपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में, कहीं नही बेगानापन है।।
घर के आगे पेड़ नीम का, वैद्यराज सा खड़ा हुआ है।
माता जैसी गौमाता का, खूँटा अब भी गड़ा हुआ है।
टेसू के फूलों से गुंथित, तीनपात की हर डाली है
घर के पीछे हरियाली है, लगता मानो खुशहाली है।
मेरे गाँव, गली आँगन में, अपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में, कहीं नही बेगानापन है।।
पीपल के नीचे देवालय, जिसमें घण्टे सजे हुए हैं।
सांझ-सवेरे भजन-कीर्तन,ढोल-मंजीरे बजे हुए हैं।
कहीं अजान सुनाई देती, गुरू-वाणी का पाठ कहीं है।
प्रेम और सौहार्द परस्पर, वैर-भाव का नाम नही है।
मेरे गाँव, गली आँगन में, अपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में, कहीं नही बेगानापन है।।
विद्यालय में सबसे पहले, ईश्वर का आराधन होता।
देश-प्रेम का गायन होता, तन और मन का शोधन होता।
भेद-भाव और छुआ-छूत का,सारा मैल हटाया जाता।
गणित और विज्ञान साथ में, पर्यावरण पढ़ाया जाता।
मेरे गाँव, गली आँगन में, अपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में, कहीं नही बेगानापन है।।
रोज शाम को दंगल-कुश्ती, और कबड्डी खेली जाती।
योगासन के साथ-साथ ही, दण्ड-बैठकें पेली जाती।
मैंने पूछा परमेश्वर से, जन्नत की दुनिया दिखला दो।
चैन और आराम जहाँ हो, मुझको वह सीढ़ी बतला दो।
मेरे गाँव, गली आँगन में, अपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में, कहीं नही बेगानापन है।।
तभी गगन से दिया सुनाई, तुम जन्नत में ही हो भाई।
मेरा वास इसी धरती पर, जिसकी तुमने गाथा गाई।
तभी खुल गयी मेरी आँखें, चारपाई दे रही गवाही।
सुखद-स्वप्न इतिहास बन गया, छोड़ गया धुंधली परछाई।
मेरे गाँव, गली आँगन में, अब तो बस अञ्जानापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में, बसा हुआ दीवानापन है।।
कितना बदल गया है भारत, कितने बदल गये हैं बन्दे।
मानव बन बैठे हैं दानव, तन के उजले, मन के गन्दे।
वीर भगत सिंह के आने की, अब तो आशा टूट गयी है।
गांधी अब अवतार धरेंगे, अब अभिलाषा छूट गयी है।
सन्नाटा फैला आँगन मेंआसमान में सूनापन है।
चारों तरफ प्रदूषण फैला, व्यथित हो रहा मेरा मन है।।
मेरे गाँव, गली आँगन में, अपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में, कहीं नही बेगानापन है।।
(२)
सोमवार, 2 मार्च 2009
"याद बहुत आते हैं"
गाँवों की गलियाँ, चौबारे, याद बहुत आते हैं।
कच्चे-घर और ठाकुरद्वारे, याद बहुत आते हैं।।
छोड़ा गाँव, शहर में आया, आलीशान भवन बनवाया,
मिली नही शीतल सी छाया, नाहक ही सुख-चैन गँवाया।
बूढ़ा बरगद, काका-अंगद, याद बहुत आते हैं।।
अपनापन बन गया बनावट, रिश्तेदारी टूट रहीं हैं।
प्रेम-प्रीत बन गयी दिखावट, नातेदारी छूट रहीं हैं।
गौरी गइया, मिट्ठू भइया, याद बहुत आते हैं।।
भोर हुई, चिड़ियाँ भी बोलीं, किन्तु शहर अब भी अलसाया।
शीतल जल के बदले कर में, गर्म चाय का प्याला आया।
खेत-अखाड़े, हरे सिंघाड़े, याद बहुत आते हैं।।
चूल्हा-चक्की, रोटी-मक्की, कब का नाता तोड़ चुके हैं।
मटकी में का ठण्डा पानी, सब ही पीना छोड़ चुके हैं।
नदिया-नाले, संगी-ग्वाले, याद बहुत आते हैं।।
घूँघट में से नयी बहू का, पुलकित हो शरमाना।
सास-ससुर को खाना खाने, को आवाज लगाना।
हँसी-ठिठोली, फागुन-होली, याद बहुत आते हैं।।
(३)
शुक्रवार, 26 मार्च 2010
“हमको याद दिलाते हैं”
जब भी सुखद-सलोने सपने, नयनों में छा आते हैं।
गाँवों के निश्छल जीवन की, हमको याद दिलाते हैं।
सूरज उगने से पहले, हम लोग रोज उठ जाते थे,
दिनचर्या पूरी करके हम, खेत जोतने जाते थे,
हरे चने और मूँगफली के, होले मन भरमाते हैं।
गाँवों के निश्छल जीवन की, हमको याद दिलाते हैं।।
मट्ठा-गुड़ नौ बजते ही, दादी खेतों में लाती थी,
लाड़-प्यार के साथ हमें, वह प्रातराश करवाती थी,
मक्की की रोटी, सरसों का साग याद आते हैं।
गाँवों के निश्छल जीवन की, हमको याद दिलाते हैं।।
आँगन में था पेड़ नीम का, शीतल छाया देता था,
हाँडी में का कढ़ा-दूध, ताकत तन में भर देता था,
खो-खो और कबड्डी-कुश्ती, अब तक मन भरमाते हैं।
गाँवों के निश्छल जीवन की, हमको याद दिलाते हैं।।
तख्ती-बुधका और कलम, बस्ते काँधे पे सजते थे,
मन्दिर में ढोलक-बाजा, खड़ताल-मँजीरे बजते थे,
हरे सिंघाड़ों का अब तक, हम स्वाद भूल नही पाते हैं।
गाँवों के निश्छल जीवन की, हमको याद दिलाते हैं।।
युग बदला, पहनावा बदला, बदल गये सब चाल-चलन,
बोली बदली, भाषा बदली, बदल गये अब घर आंगन,
दिन चढ़ने पर नींद खुली, जल्दी दफ्तर को जाते हैं।
गाँवों के निश्छल जीवन की, हमको याद दिलाते हैं।।
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सोमवार, 21 अप्रैल 2014
"मेरे तीन पुराने गीत" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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वाह बहुत ख़ूब
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर गीत !
जवाब देंहटाएंभाव -प्रबंध से सुन्दर गीत :
जवाब देंहटाएंमेरे गाँव, गली-आँगन में, अपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में, कहीं नही बेगानापन है।।
"याद बहुत आते हैं"
गाँवों की गलियाँ, चौबारे, याद बहुत आते हैं।
कच्चे-घर और ठाकुरद्वारे, याद बहुत आते हैं।।
शुक्रवार, 26 मार्च 2010
“हमको याद दिलाते हैं”
जब भी सुखद-सलोने सपने, नयनों में छा आते हैं।
गाँवों के निश्छल जीवन की, हमको याद दिलाते हैं।
ए 20 वी शताब्दी के किसी गाँव का चित्रण लगता है।
जवाब देंहटाएंआज कल के गांगांवों में ऐसे दृश्य शायद कहीं मिल जाएं!
वरना ए सपना सा लगता है।
ए 20 वी शताब्दी के किसी गाँव का चित्रण लगता है।
जवाब देंहटाएंआज कल के गांगांवों में ऐसे दृश्य शायद कहीं मिल जाएं!
वरना ए सपना सा लगता है।