इंसानों की बोली
में, ईमान बदलते देखे हैं।
धनवानों की झोली
में, सामान बदलते देखे हैं।।
सौंपे थे हथियार युद्ध में, अरि को सबक सिखाने को,
उनका ही मुँह मोड़
दिया, अपनों को घाव खिलाने को,
गद्दारों की गोली
में, संधान बदलते देखे हैं।
धनवानों की झोली
में, सामान बदलते देखे हैं।।
भार पाला दिखा जिधर,
उस अचानक जा फिसले,
माना था जिनको अपना,
वो थाली के बैंगन निकले,
मक्कारों की टोली
में, मैदान बदलते देखे हैं।
धनवानों की झोली
में, सामान बदलते देखे हैं।।
किस पर करें भरोसा,
अब कोई भी धर्म-इमान नहीं,
अपने और पराये की,
दुनिया में कुछ पहचान नहीं,
अरमानों की डोली
में, मेहमान बदलते देखे हैं।
धनवानों की झोली
में, सामान बदलते देखे हैं।।
जीवन की आपाधापी
में, झंझावात बहुत फैले हैं,
उजले-उजले तन वालों
के, अन्तस तो मैले-मैले हैं,
रंगों की रंगोली
में, परिधान बदलते देखे हैं।
धनवानों की झोली
में, सामान बदलते देखे हैं।।
साग-दाल को छोड़,
अमानुष भोजन को अपनाया है,
लुप्त हो गयी सत्य
अहिंसा, हिंसा का युग आया है,
नादानों की होली
में, अनुपान बदलते देखे हैं।
धनवानों की झोली
में, सामान बदलते देखे हैं।।
बाहुबली हैं
सत्ताधारी, हरिश्चन्द्र लाचार हुए,
लोकतन्त्र के
दरवाजे पर, पढे-लिखे बेकार हुए,
बलवानों की खोली
में, दरबान बदलते देखे हैं।
धनवानों की झोली
में, सामान बदलते देखे हैं।।
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मंगलवार, 15 अप्रैल 2014
"गीत-दरबान बदलते देखे हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत बढ़िया :)
जवाब देंहटाएंसमय का संकट यही है -किसी पर किसी का बस नहीं !
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