जीवन
बहते पानी जैसा,
चरैवेति
का पथ सिखलाता।
कलकल-छलछल
झरता झरना,
सात
सुरों का राग सुनाता।।
ठहरा
पानी गहरा सागर,
भरें
कहाँ से अपनी गागर,
रुक
जाता जल का प्रवाह जब,
निर्मल
जल खारा बन जाता।
कलकल-छलछल
झरता झरना,
सात
सुरों का राग सुनाता।।
गुजर
रही ज़िन्दग़ी सफर में,
नौका है
मझधार भँवर में,
पथ
दुर्गम है, लक्ष्य कठिन है
नाविक
चप्पू रोज चलाता।
कलकल-छलछल
झरता झरना,
सात
सुरों का राग सुनाता।।
पल-दो
पल की दुनियादारी,
मौत
ज़िन्दगी पर है भारी,
धूप सुहानी
देख-देख कर,
राही
आगे कदम बढ़ाता।
कलकल-छलछल
झरता झरना,
सात
सुरों का राग सुनाता।।
हीरे-मोती,
मंजुल माला,
बहुत
कीमती है दोशाला,
सावधान
हो धारण करना,
दर्पण असली
“रूप” दिखाता।
कलकल-छलछल
झरता झरना,
सात
सुरों का राग सुनाता।।
बुनता नित्य-नये
सपनों को,
बाँट
रहा अमृत अपनों को,
खुद को
अमर समझने वाला,
बिना
मुहूरत के मर जाता।
कलकल-छलछल
झरता झरना,
सात
सुरों का राग सुनाता।।
|
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शुक्रवार, 11 अप्रैल 2014
"दर्पण असली 'रूप' दिखाता" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत सुंदर रचना.
जवाब देंहटाएंsarthak bhavon kee abhivyakti .aabhar
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