उन्मीलन पत्रिका में
मेरा एक गीत
शिष्ट मधुर व्यवहार, बहुत अच्छा लगता है।
सपनों का संसार, बहुत अच्छा लगता है।। फूहड़पन के वस्त्र, बुरे सबको लगते हैं, जंग लगे से शस्त्र, बुरे सबको लगते हैं, स्वाभाविक शृंगार, बहुत अच्छा लगता है। सपनों का संसार, बहुत अच्छा लगता है।। वचनों से कंगाल, बुरे सबको लगते हैं, जीवन के जंजाल, बुरे सबको लगते हैं, सजा हुआ घर-बार, बहुत अच्छा लगता है। सपनों का संसार, बहुत अच्छा लगता है।। चुगलखोर इन्सान, बुरे सबको लगते हैं, सूदखोर शैतान, बुरे सबको लगते हैं, सज्जन का सत्कार, बहुत अच्छा लगता है। सपनों का संसार, बहुत अच्छा लगता है।। लुटे-पिटे दरबार, बुरे सबको लगते हैं, दुःखों के अम्बार, बुरे सबको लगते हैं, हरा-भरा परिवार, बहुत अच्छा लगता है। सपनों का संसार, बहुत अच्छा लगता है।। मतलब वाले यार, बुरे सबको लगते हैं, चुभने वाले खार, बुरे सबको लगते हैं, निश्छल सच्चा प्यार, बहुत अच्छा लगता है। सपनों का संसार, बहुत अच्छा लगता है।। |
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बुधवार, 30 अप्रैल 2014
"उन्मीलन पत्रिका में मेरा एक गीत-अच्छा लगता है" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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बहुत सुंदर !
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया सीख है इस कविता में..
जवाब देंहटाएं.. सुन्दर रचना
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 01-05-2014 को चर्चा मंच पर दिया गया है
जवाब देंहटाएंआभार
bahut sundar sandesh prasarit karti rachna .patrika me prakashit hone hetu badhai
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर कविता।
जवाब देंहटाएंपेपर पब्लिश करवाना है। सम्पर्क सूत्र बताए
जवाब देंहटाएं