सत्ता की भागीदारी
में, देशभक्त गुमनाम हो गये।।
संसद के पावन मन्दिर
में,
जमकर जूता-लात
चलाया।
अपने प्यारे
लोकतन्त्र का,
दुनियाभर में मान
घटाया।
राजनीति के कुटिल
लुटेरे, चारा खा बदनाम हो गये।
सत्ता की भागीदारी
में, देशभक्त गुमनाम हो गये।।
जनता को गुमराह कर
रहे,
दीन-मजहब को भुना
रहे हैं।
भरते जाते बैंक
विदेशी,
मन ही मन गुन-गुना
रहे हैं।
बेच दिया ईमान-धर्म
को, धन के लिए गुलाम हो गये।
सत्ता की भागीदारी
में, देशभक्त गुमनाम हो गये।।
नहीं सुरक्षित ललनाएँ
अब,
रामचन्द्र के आँगन
में।
घूम रहे हैं आज
भेड़िए,
गली-गाँव, वन-कानन
में।
अन्न कहाँ से उगे
खेत में, खरपतवार तमाम हो गये।
सत्ता की भागीदारी
में, देशभक्त गुमनाम हो गये।।
अमर शहीदों की
कुर्बानी,
अब तो आदरहीन हो गयी।
मानवता का “रूप” देखकर,
आजादी गुणहीन हो गयी।
आज विदेशी बणिकों के, भारत में कई मुकाम हो गये।
सत्ता की भागीदारी
में, देशभक्त गुमनाम हो गये।।
|
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मंगलवार, 8 अप्रैल 2014
"गीत-देशभक्त गुमनाम हो गये" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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वाह ! बहुत सुंदर रचना ।
जवाब देंहटाएंक्या बात है। अच्छी अभिवक्ति।
जवाब देंहटाएंसच कहा है आज नए नेता आ गए हैं और भूल गए हैं देश-भक्तों को ...
जवाब देंहटाएंसार्थक रचना ...
नमस्कार शास्त्री जी ...
सच है, अब देशभक्तों का यही मान रह गया है।
जवाब देंहटाएं