प्रीत
की पोथियाँ बाँचते-बाँचते,
झुक गयी
है कमर,
ढल गयी
है उमर।
फासलों
की फसल काटते-काटते,
झुक गयी
है कमर,
ढल गयी
है उमर।।
मन तो
है चिरयुवा,
तन
शिथिल पड़ रहा।
बूढ़ा
बरगद अभी,
जंग को लड़
रहा।
सुख की
सौगात को बाँटते-बाँटते,
झुक गयी
है कमर।
ढल गयी
है उमर।।
नेह की
आस में,
बातियाँ
जल रहीं।
वक्त
आया बुरा,
आँधियाँ
चल रहीं।
धुन्ध
को-धूल को छाँटते-छाँटते,
झुक गयी
है कमर,
ढल गयी
है उमर।।
झूठ की
रेल है,
सत्यता
है कहाँ?
नौनिहालों
में अब,
सभ्यता
है कहाँ?
ज्ञान
की गन्ध को बाँटते-बाँटते,
झुक गयी
है कमर,
ढल गयी
है उमर।।
देश
आजाद है,
पर अमन
हैं कहाँ?
मुस्कराता
हुआ,
अब चमन
हैं कहाँ?
ओस की
बून्द को चाटते-चाटते,
झुक गयी
है कमर,
ढल गयी
है उमर।।
ख्वाब
का नगमगी,
“रूप”
है अब कहाँ?
प्यार
की गुनगुनी,
धूप है
अब कहाँ?
खाई
अलगाव की पाटते-पाटते,
झुक गयी
है कमर,
ढल गयी
है उमर।।
|
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रविवार, 6 अप्रैल 2014
"गीत-झुक गयी है कमर" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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जवाब देंहटाएंनेह की आस में,
जवाब देंहटाएंबातियाँ जल रहीं।
वक्त आया बुरा,
आँधियाँ चल रहीं।
...वाह...बहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति...
देश आजाद है,
जवाब देंहटाएंपर अमन हैं कहाँ?
मुस्कराता हुआ,
अब चमन हैं कहाँ?....बहुत सुन्दर
मन और तन की यही लड़ाई है कि एक समय के बाद तन साथ देना बन्द कर देता है।
जवाब देंहटाएं