यह जीवन की लाचारी है, अब तक हर साँस कुँवारी है। खड़ी हुई दोराहे पर, वह सोच रही अपने मन में, ठण्डी-ठण्डी बयार आकर, क्यों आग लगाती है तन में, तन पर अधिकार पिया का है, मन का प्रेमी अधिकारी है। यह जीवन की लाचारी है, अब तक हर साँस कुँवारी है।। वह लोक लाज के कारण, अपने मन की टीस दबा बैठी, सूरज का तेज-प्रकाश देख, रजनी रजनीश गँवा बैठी, सम्बन्धों मे वह छली गयी, झूठी सब रिश्तेदारी है। यह जीवन की लाचारी है, अब तक हर साँस कुँवारी है।। प्रेमी की सूरत नयनों मे, साजन से नजर चुराती है, वो चित्र न मन से मिट जाये, ये नयन मूँद मुस्काती है, साजन तो यही समझते हैं, शर्मीली मेरी नारी है। यह जीवन की लाचारी है, अब तक हर साँस कुँवारी है। |
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शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009
"अब तक हर साँस कुँवारी है।" एक बहुत पुरानी रचना- (डा0 रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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शास्त्री जी!
जवाब देंहटाएंरचना पुरानी है मगर अच्छी है।
शायद जवानी के दिनों में लिखी होगी।
इण्टर-नेट पर 150वीं रचना
प्रकाशित करने के लिए,
आपको मुबारकवाद।
बहुत धन्यवाद जी इतनी सुंदर रचना सूबह सूबह पढवाने के लिये. आप जैसे रचयिता की रचना पुरानी हो या नई हो क्या फ़र्क पडता है?
जवाब देंहटाएंबस आनन्द बरस जाता है. आप तो पढवाते रहें ऐसे ही.
रामराम.
150वीं प्रविष्टी के लिए
जवाब देंहटाएंबधाई हो मयंक जी!
शास्त्रीजि रचना कभी पुरानी नहिं होती वो हर पल किसी नये लिबास मे नित नूतन रहती है बहुत सुन्दर रछ्न है ब्धाई
जवाब देंहटाएंbahut khubsurat bhav
जवाब देंहटाएंजब पुराना चावल,पुरानी शराब का महत्व बढ सकता है तो पुरानी रचना का क्यों नही,बहुत बढिया।
जवाब देंहटाएंमज़ेदार ...बहुत अच्छा लगा पढ़कर
जवाब देंहटाएंaapki purani rachna mein bhi utni hi gahanta hai jitni aaj hoti hai.........bahut gahri soch ke sath likhi gayi thi us waqt bhi kavita.
जवाब देंहटाएंwah kya kahne.
150th post ke liye hardik shubhkamnayein.
जवाब देंहटाएंaap aise hi likhte rahein aur hum aise hi padhte rahein .
बहुत अच्छा लिखा आपने... क्या आज सास दिवस है.. ताऊजी के ब्लॉग पर भी सास ही सास दिख रही है :)
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