सोच रहा हूँ-
कहाँ से शुरू करूँ,
अपनी बात,
कैसे पहुँचाऊँ?
धर्म और समाज के,
ठेकेदारों को कुछ आघात।
बड़ी मछली,
छोटी व कमजोर मछली को-निगल रही है,
फिर भी दुनिया चल रही है।
क्या यही संसार की रीति है?
क्या समाज की यही नीति है?
ईश्वर ने बनाए हैं,
तीन प्रकार के अछूत,
जो हैं पर्यावरण को,
बचाने के जीते-जागते सबूत।
शूद्र सेवक हैं ममत्व के,
ये भूखे हैं अपनत्त्व के।
लेकिन,
आधुनिक समाज ने,
पाश्चात्य सभ्यता में रंगे हुए आज ने।
इन्हें ही खाना शुरू कर दिया है,
इनकी सेवाओं का अच्छा सिला दिया है।
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मछली! जल का शूद्र,
अर्थात्,
पानी को साफ करने वाला,
सूअर!
विष्टा जैसी,
गन्दगी को साफ करने वाला,
और मुर्गा!
नाक-थूक आदि को साफ करने वाला।
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परमात्मा के बनाये हुए,
इन तीनों प्रकार के शूद्रों को,
मनुष्य,
प्रेम से खा रहा है,
और शान से-अपने को,
श्रेष्ठ और उच्च वर्ग का बता रहा है।
बहुत बढिया लिखा है .. बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत सही लिखा है आपने ।
जवाब देंहटाएंयथार्थ का बोध कराती कविता।
जवाब देंहटाएंबधाई।
बिल्कुल यथार्थ रचना.
जवाब देंहटाएंरामराम.
अच्छा प्रहार।
जवाब देंहटाएंbahut hi shandar likha hai aur ek teekha prahar hai samaj ke thekedaron par.
जवाब देंहटाएंमांसाहारी मनुष्यों पर
जवाब देंहटाएंइससे अच्छा
कोई दूसरा कटाक्ष
हो ही नहीं सकता!
इस कविता की
जितनी प्रशंसा की जाए,
उतनी कम है!