बात 1989 की है। उन दिनों मेरे एक जवाँदिल बुजुर्ग मित्र ठा0 कमला कान्त सिंह थे, इनका खटीमा शहर में ‘होटल बेस्ट व्यू’ के नाम से एक मात्र थ्री स्टार होटल था। ये बाबा नागार्जुन के हम-उम्र ही थे। बिहार से लगते हुए क्षेत्र पूर्वी उत्तर-प्रदेश के ही मूल निवासी थे।
बाबा से मिलने अक्सर आ जाते थे।
एक दिन बातों-बातों में ठाकुर साहब को पता लग ही गया कि बाबा मीट भी खा लेते हैं। बस फिर क्या था, उन्होंने बाबा को खाने की दावत दे दी।
बाबा ने कहा- ‘‘ठाकुर साहब! मैं होटल का मीट नही नही खाता हूँ। घर पर ही मीट बनवाना।’’
शाम को ठाकुर साहब ने बाबा को बुलावा भेज दिया।
मैं बाबा को साथ लेकर ठाकुर साहब के घर गया।
अब ठा0 साहब ने अपनी कार में बाबा को बैठाया और अपने होटल ले गये।
बस फिर क्या था?
बाबा बिफर गये और बड़ा अनुनय-विनय करने पर भी बाबा ने ठाकुर साहब की दावत नही खाई और होटल से वापिस लौट आये। मेरे घर पर खिचड़ी बनवा कर बडे प्रेम से खाई।
मैंने बाबा से पूछा- ‘‘बाबा! आपने ठा0 साहब की दावत क्यों अस्वीकार कर दी।’’
बाबा ने कहा- ‘‘शास्त्री जी! मैंने ठा0 साहब से पहले ही कहा था कि मैं होटल का मीट नही खाता हूँ।’’
मैंने प्रश्न किया- ‘‘ बाबा! होटल में क्यों नही खाते हो?’’
बाबा बोले- ‘‘अरे भाई! होटल के खाने में घर के खाने जितना प्यार और अपनत्व नही होता है। प्यार पैसा खर्च करके तो नही खरीदा जा सकता।’’
बाबा के तर्क ने मुझे निरुत्तर कर दिया था।
"बाबा नागार्जुन की तो हर बात निराली ही थी। वे जो कुछ बोलते थे। तर्क की कसौटी पर कस कर नपा तुला ही बोलते थे।"
जवाब देंहटाएंप्रेरणादायक संस्मरण है।
बधाई।
सचमुच, होटल के खाने में घर के खाने जितना प्यार और अपनत्व नहीं होता है!
जवाब देंहटाएंबाबा सही कहते थे। जब जब होटल में खाया पेट भरा पर मन ना भरा।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी और बड़ी बात कही उन्होंने
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