वो आये हैं मन के द्वारे, इक अरसे के बाद। महक उठे सूने गलियारे, इक अरसे के बाद।। भटके होंगे कहाँ-कहाँ, जाने कैसी मजबूरी थी, मैंने खोजा यहाँ-वहाँ, लेकिन किस्मत में दूरी थी, दहक उठे सोये अंगारे, इक अरसे के बाद। वो आये हैं मन के द्वारे, इक अरसे के बाद।। जाड़ा बीता, गरमी बीती, रिम-झिम सावन बरस गये, जल बिन मछली से वो तड़पे, नैन मेरे भी तरस गये, दूर हुए हैं अब अंधियारे, इक अरसे के बाद। वो आये हैं मन के द्वारे, इक अरसे के बाद।। उनके आने से उपवन में, फिर हरियाली छायी है, पतझड़ की मारी बगिया में, पवन बसन्ती आयी है, चहक उठे आँगन चौबारे, इक अरसे के बाद। वो आये हैं मन के द्वारे, इक अरसे के बाद।।
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गुरुवार, 23 अप्रैल 2009
"वो आये हैं मन के द्वारे, इक अरसे के बाद।" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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जवाब देंहटाएंदेर से सही पर चमके तो
अंधकार में यह गलियारे
चाहे इक अरसे के बाद
bahut sunder
जवाब देंहटाएंवो आये मन की dwaare इक arse के बाद................
जवाब देंहटाएंsalil प्रवाह की तरह ही आपकी रचना बहती हुयी lagti है ............किसी मधुर गीत की तरह मन को vibhor करती हुयी
वो आये हैं मन के द्वारे, इक अरसे के बाद।
जवाब देंहटाएंवाह शाश्त्री जी, बहुत खूबसूरत गीत.
रामराम.
aapki to har rachna khoobsoorat hoti hai...........bahut hi badhiya.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना है .. जवाब नहीं आपका .. बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों के बाद
जवाब देंहटाएंतुम्हारी याद चली आई!
मन की बगिया में
बेला की ख़ुशबू भर लाई!
चहक उठे आँगन चौबारे,
जवाब देंहटाएंइक अरसे के बाद।
वो आये हैं मन के द्वारे,
इक अरसे के बाद।।
मनोहारी रचना.. आभार
अति सुन्दर.
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर!!
जवाब देंहटाएं