घूमते
शब्द कानन में उन्मुक्त से,
जान
पाये नहीं आज तक व्याकरण।
बस
दिशाहीन सी चल रही लेखिनी
कण्टकाकीर्ण
पथ नापते हैं चरण।।
ताल
बनती नहीं, राग कैसे सजे,
बेसुरे
हो गये साज-संगीत हैं।
ढाई-आखर
बिना है अधूरी ग़ज़ल,
प्यार
के बिन अधूरे प्रणयगीत हैं
नेह
के सोत सूखे हुए हैं सभी,
जानता
हूँ नहीं प्रीत का आचरण।
कण्टकाकीर्ण
पथ नापते हैं चरण।।
सूदखोरों
की आबाद हैं बस्तियाँ,
आज
गिरवीं पड़ा है तिजोरी में दिल।
बिक
रहा बोतलों में जहाँ पेयजल,
आचमन
के लिए है कहाँ अब सलिल।
खोखले
छन्द बोलेंगे कैसे व्यथा,
स्वार्थ
के वास्ते आज पोषण-भरण।
कण्टकाकीर्ण
पथ नापते हैं चरण।।
चारणों
के नगर में, सुख़नवर कहाँ,
जिन्दग़ी
चल रही भेड़ की चाल से।
कौन
तूती के सुर को सुनेगा यहाँ,
मढ़
रहे ढपलियाँ, बाल की खाल से।
लाज
कैसे बचे द्रोपदी की यहाँ
कंस
ओढ़े हुए हैं कृष्ण का आवरण
कण्टकाकीर्ण
पथ नापते हैं चरण।।
|
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गुरुवार, 1 अगस्त 2013
"पथ नापते हैं चरण" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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खूबसूरत छंद रचना
जवाब देंहटाएंआचमन के लिए है कहाँ अब सलिल।
जवाब देंहटाएंखोखले छन्द बोलेंगे कैसे व्यथा,
स्वार्थ के वास्ते आज पोषण-भरण।
कण्टकाकीर्ण पथ नापते हैं चरण।।
बहुत सुन्दर
बहुत उम्दाछन्द
जवाब देंहटाएंअच्छे लिंक्स, बढिया चर्चा
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति है गुरु जी-
जवाब देंहटाएंआभार आपका-
बहुत ही सशक्त.
जवाब देंहटाएंरामराम.
बहुत सुंदर !
जवाब देंहटाएंकंटकाकीर्ण पथ नापते चरण बढ़ ही रहे हैं!
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंumda rachna
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार(3-8-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
जवाब देंहटाएंसूचनार्थ!