छलक जाते हैं अब आँसू, ग़ज़ल को गुनगुनाने में।
नही है चैन और आराम, इस जालिम जमाने में।।
नदी-तालाब खुद प्यासे, चमन में घुट रही साँसें,
प्रभू के नाम पर योगी, लगे खाने-कमाने में।
हुए बेडौल तन, चादर सिमट कर हो गई छोटी,
शजर मशगूल हैं अपने फलों को आज खाने में।
दरकते जा रहे अब तो, हमारी नींव के पत्थर,
चिरागों ने लगाई आग, खुद ही आशियाने में।
लगे हैं पुण्य पर पहरे, दया के बन्द दरवाजे,
दुआएँ कैद हैं अब तो, गुनाहों की दुकानों में।
जिधर देखो उधर ही “रूप” का, सामान बिकता है,
रईसों के यहाँ अब, इल्म रहता पायदानों में।
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गुरुवार, 29 अगस्त 2013
"इल्म रहता पायदानों में" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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सुन्दर प्रस्तुति-
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें-
बड़ी ही सुन्दर रचना है। हर एक बात सत्य है।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन अंदाज़..... सुन्दर
जवाब देंहटाएंअभिव्यक्ति......
वाह बहुत खूब !
जवाब देंहटाएंसच कहा। अच्छी कविता
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कविता।
जवाब देंहटाएंलगे हैं पुण्य पर पहरे, दया के बन्द दरवाजे,
जवाब देंहटाएंदुआएँ कैद हैं अब तो, गुनाहों की दुकानों में।
सही कहा है आपने
वाह वाह क्या बात है!
जवाब देंहटाएंजिधर देखो उधर ही “रूप” का, सामान बिकता है,
जवाब देंहटाएंरईसों के यहाँ अब, इल्म रहता पायदानों में।
भाव का सागर है पूरी गजल। व्यंग्य पीड़ा लिए है।
क्या बात वाह!
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया रचना...
जवाब देंहटाएंसादर
अनु