दिन गुज़रते गये, रात जाती रही।
खलबली
ज़िन्दग़ी में मचाती रही।
धूप
रौशन हुई, ताप इतना बढ़ा,
चाँदनी
रात मन को जलाती रही।
ना
मिलन की खुशी, ना बिछुड़ने का ग़म,
याद
बरबस पुरानी सताती रही।
जब
फ़लक में उठा बादलों का धुँआ,
राग
बरसात अपना सुनाती रही।
फिर
उमस बढ़ गयी, तन छटपटाने लगा,
स्वेद
से देह भी चिपचिपाती रही।
शीत
आया तो शीतल हवाएँ चलीं,
हड्डियाँ
ठण्ड से कँपकपाने लगी।
माना
मौसम में हैं खूबियाँ-खामियाँ,
वक्त
की गड़बड़ी याद आती रही।
लालिमा
तो कभी याद आती नहीं.
कालिमा
“रूप” अपना दिखाती रही।
|
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शुक्रवार, 2 अगस्त 2013
"याद आती रही" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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मौसम के कैनवास पर यादों की सुंदर तस्वीर, वाह क्या बात है ......
जवाब देंहटाएंयादों का सुन्दर झरोखा..
जवाब देंहटाएंकभी कभी यादों में बहुत कुछ याद आ जाता है
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंरामराम.
जीवन के जाने कितने ही विभिन्न रूप आते जाते हैं ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
मौसम के आनी जानी सी, अपनी एक कहानी है।
जवाब देंहटाएंमौसम के आनी जानी सी, अपनी एक कहानी है,
जवाब देंहटाएंखुली धूप दिन, शीत निशा है और बरसता पानी है।
आपकी इस प्रस्तुति को शुभारंभ : हिंदी ब्लॉगजगत की सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुतियाँ ( 1 अगस्त से 5 अगस्त, 2013 तक) में शामिल किया गया है। सादर …. आभार।।
जवाब देंहटाएंकृपया "ब्लॉग - चिठ्ठा" के फेसबुक पेज को भी लाइक करें :- ब्लॉग - चिठ्ठा