सौदागर
तैयार खड़े हैं,
कैसे शब्द बचेंगे अपने।
रुतबे
जिनके बड़े-बड़े हैं,
देख
रहे वो दिन में सपने।।
ग़ालिब़
से वो ग़ज़ल माँगते,
तुलसी
से दोहा-चौपाई।
बच्चन
जी से माँग रहे हैं,
मधुशाला
की कुछ रूबाई।
जिद
करने पर लोग अड़े हैं,
गाय कसाई
चले हड़पने।
मीठी-मीठी
बात बनाते,
अपने-अपने
दाँव चलाते।
खनक दिखा करके सिक्कों की,
उलटी
गिनती हमें सिखाते।
“रूप”
बदलकर लोभी बगुले,
लगे राम
की माला जपने।
होते
हैं अलमस्त सुख़नवर,
फाके-मस्ती
में जीते हैं।
अमृत
बाँट रहे दुनिया को,
लेकिन
स्वयं गरल पीते हैं।
काँटों
की गोदी में पलकर,
चले चहकने
और महकने।
इन्सानों
की बस्ती में अब,
धर्म
नहीं, ईमान नहीं है।
खुल्लम-खुल्ला
न्याय बिक रहा ,
लगता
कोई विधान नहीं है।
उपवन
में आवारा माली,
कोमल कलियाँ लगे मसलने।
|
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बुधवार, 15 जनवरी 2014
"कैसे शब्द बचेंगे अपने" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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very nice .
जवाब देंहटाएंशब्दों से अभिभूत हों हम, न कि व्यक्तित्वों से।
जवाब देंहटाएंमनोहरता को प्रदर्शित किया है जो आज इस युग की धारा बनीं हुईं हैं
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