मीठा
पानी देती नदियाँ, बहता अविरल सोता है।
लेकिन
गहरे सागर में, क्यों खारा जल होता है?
कर्म
बनाता भाग्य हमारा, धर्म सिखाता मानवता,
कर्म-धर्म
से हीन मनुज, जीवन का बोझा ढोता है।
बिल्ली
के पंजे में फँसकर, भूल गया अधिकारों को,
बिना
विचारे-बिन सोचे, हाँ करता रट्टू तोता है।
जब
से खास बना है मिट्ठू, पिट्ठू उसने पाल लिये,
इसीलिए
तो आमआदमी, मूँढ पकड़ कर रोता है।
छल
की छलनी के डर से तो, सूप पलायन कर बैठे,
मक्कारों
ने लील लिया सब, देश रह गया थोथा है।
उसने
असली “रूप” छिपाया, खादी की केंचुलियों में,
लक्कड़-पत्थर, चारा खा वो, नींद चैन की सोता है।
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रविवार, 5 जनवरी 2014
"ग़ज़ल-बहता अविरल सोता है" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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वाह बहुत सुंदर !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर.
जवाब देंहटाएंउम्दा व्यंग ग़ज़ल...
जवाब देंहटाएंसामयिकता को दिखाते रूपक
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ,सामयिक !
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट सर्दी का मौसम!
सुन्दर प्रस्तुति-
जवाब देंहटाएंआभार गुरु जी -
waah kya bat hai .......bahut sundar ....
जवाब देंहटाएंhamesha ki tarah khas ...
जवाब देंहटाएंवाह..अच्छी पोल खोल दी आपने..
जवाब देंहटाएं