हर रोज रंग अपना, मौसम बदल रहा है।
घर-द्वार
तो वही है, आँगन बदल रहा है।।
सूरज
नियम से उगता,
चन्दा
नियम से आता।
कल-कल
निनाद करता,
झरना
ग़ज़ल सुनाता।
पतझड़
के बाद अपना, उपवन बदल रहा है।
घर-द्वार
तो वही है, आँगन बदल रहा है।।
उड़ उड़के आ रहे हैं,
पंछी
खुले गगन में।
परदेशियों
ने डेरा,
डाला
हुआ चमन में।
आसन
वही पुराना, शासन बदल रहा है।
घर-द्वार
तो वही है, आँगन बदल रहा है।।
महफिल
में आ गये हैं,
नर्तक नये-नवेले।
बेजान
हैं तराने,
शब्दों
के हैं झमेले।
हैरत
में है ज़माना, दामन बदल रहा है।
घर-द्वार
तो वही है, आँगन बदल रहा है।।
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शुक्रवार, 24 जनवरी 2014
"बदल रहा है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत सुन्दर..
जवाब देंहटाएंपरिवर्तन की शाश्वत परम्परा को परिभाषित करती बहुत सुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंपरिवर्तन परम सत्य है ...
जवाब देंहटाएंमनभावन रचना
बहुत सुंदर.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा शनिवार (25-1-2014) "क़दमों के निशां" : चर्चा मंच : चर्चा अंक : 1503 पर भी है.