कभी न देखा पीछे
मुड़कर,
कभी न देखा लेखा-जोखा।
कॉपी-कलम छोड़ कर
खुद को,
मैंने ब्लॉगिंग में
है झोंका।।
इस आभासी जग में
मुझको,
सबने हाथों-हाथ
लिया है।
मेरे मामूली शब्दों
को,
सबने अपना प्यार
दिया है।
जाने कैसे रचनाओं
पर,
अब तक रंग चढ़ा है
चोखा।
कॉपी-कलम छोड़ कर
खुद को,
मैंने ब्लॉगिंग में
है झोंका।।
आयी कहाँ से किरण सुनहरी,
किसने दीपक को दमकाया?
कलियाँ सुमन बन गयी
कैसे,
किसने उपवन को
महकाया?
मेरी छोटी सी कुटिया
में,
ना खिड़की ना कोई
झरोखा।
कॉपी-कलम छोड़ कर
खुद को,
मैंने ब्लॉगिंग में
है झोंका।।
शब्दों की पहचान
नहीं है,
गीत-गज़ल का ज्ञान
नहीं है।
मातु शारदे रचना
रचतीं,
मुझमें छन्द विधान
नहीं है।
कैसे “रूप” निखारूँ
अपना,
मैं दुनिया का
जन्तु अनोखा।
कॉपी-कलम छोड़ कर
खुद को,
मैंने ब्लॉगिंग में
है झोंका।।
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बुधवार, 17 जून 2009
‘‘वर्षा ऋतु’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
आसमान में उमड़-घुमड़
कर छाये बादल।
श्वेत-श्याम से नजर आ रहे मेघों के दल।
कही छाँव है कहीं घूप
है,
इन्द्रधनुष कितना
अनूप है,
मनभावन रंग-रूप बदलता
जाता पल-पल।
आसमान में उमड़-घुमड़
कर छाये बादल।।
मम्मी भीगी , मुन्नी भीगी,
दीदी जी की चुन्नी
भीगी,
मोटी बून्दें बरसाती, निर्मल-पावन जल।
आसमान में उमड़-घुमड़
कर छाये बादल।।
हरी-हरी उग गई घास है,
धरती की बुझ गई प्यास
है,
नदियाँ-नाले नाद
सुनाते जाते कल-कल।
आसमान में उमड़-घुमड़
कर छाये बादल।।
बिजली नभ में चमक रही
है,
अपनी धुन में दमक रही
है,
वर्षा ऋतु में कृषक
चलाते खेतो में हल।
आसमान में उमड़-घुमड़
कर छाये बादल।।
श्वेत-श्याम से नजर आ रहे मेघों के दल।
|
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गुरुवार, 2 जनवरी 2014
"मुझमें छन्द विधान नहीं है" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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बहुत सुन्दर कविता ,सच मे माँ सारदे का वरदान है |
जवाब देंहटाएंनया वर्ष २०१४ मंगलमय हो |सुख ,शांति ,स्वास्थ्यकर हो |कल्याणकारी हो |
नई पोस्ट विचित्र प्रकृति
नई पोस्ट नया वर्ष !
आपकी सारी रचनाएं ही उत्तम है।
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति है आदरणीय-
जवाब देंहटाएंबधाई -
बहुत सुन्दर रचना
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