अब धरा पर रह न जाये तम कहीं,
रौशनी की हम कतारें ला रहे हैं।
इस दिवाली पर दियों के रूप में,
चाँद-सूरज और सितारे आ रहे हैं।।
दीपकों की बातियों
को तेल का अवलेह दो,
जगमगाने के लिए भरपूर
इनको नेह दो।
चहकती दीपावली हर
द्वार पर हों
महकती लड़ियाँ सजीं
दीवार पर हों।
शारदा-लक्ष्मी-गजानन
देव को,
स्वच्छ-सुन्दर
नीड़ ज्यादा भा रहे हैं।
धूप-चन्दन, दीप और
अनुराग से,
भक्ति के रँग में
रंगे शुभराग से,
देवगण की नित्य
होनी चाहिए आराधना,
वन्दना से ही सफल
होगी हमारी साधना,
हे प्रभो! आकाश
को निर्मल करो,
दुःख के बादल
घनेरे छा रहे हैं।
कर्तव्य की करता
न कोई होड़ है,
अब मची अधिकार की
ही दौड़ है।
सभ्यता का भाव बौना
हो गया.
आवरण कितना घिनौना
हो गया।
संक्रमण के इस भयानक
दौर में,
दम्भ-लालच आदमी
को खा रहे हैं।
|
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मंगलवार, 29 अक्टूबर 2013
"रौशनी की हम कतारें ला रहे हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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दीपकों की बातियों को तेल का अवलेह दो,
जवाब देंहटाएंजगमगाने के लिए भरपूर इनको नेह दो।
चहकती दीपावली हर द्वार पर हों
महकती लड़ियाँ सजीं दीवार पर हों।
शारदा-लक्ष्मी-गजानन देव को,
स्वच्छ-सुन्दर नीड़ ज्यादा भा रहे हैं।
.बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना ....
दीप पर्व मंगल कामनाएं !
वाह बहुत सुंदर !
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंकर्तव्य की करता न कोई होड़ है,
अब मची अधिकार की ही दौड़ है।
सभ्यता का भाव बौना हो गया.
आवरण कितना घिनौना हो गया।
संक्रमण के इस भयानक दौर में,
दम्भ-लालच आदमी को खा रहे हैं।
शानदार सार्थक दिवाली चिंतन।