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बुधवार, 31 अक्टूबर 2012
"फिरकों में क्यों बाँट खाने लगे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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फितरत है इंसान की, बाँट-बूट में तेज |
जवाब देंहटाएंरस्ते रस्ते घूमता, करिया लिए करेज |
वाह वाह...
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ..
आपका भी जवाब नहीं......
सादर
अनु
lazwaab gajal....
जवाब देंहटाएंकमाल लिखा है ,ग़ज़ल सिर्फ उर्दू की जागीर नही है भाई.हम हिंदी में भी लिखते हैं.मुझे आपका लिखा सबसे ज्यादा यही कलम अच्छा लगा.मजा आ गया पढ़कर.मैंने इसे कई बार पढ़ा.बहुत जबर्दस्त.
जवाब देंहटाएंमोहब्बत नामा
मास्टर्स टेक टिप्स
इंडियन ब्लोगर्स वर्ल्ड
लाजवाब सच मे मजा आया
जवाब देंहटाएंयहाँ भी पधारे
फेसबूक पर गुंडे मवालियों का राज
http://eksacchai.blogspot.com/2012/10/blog-post_30.html
क्या ग़ज़ल सिर्फ उर्दू की जागीर है
जवाब देंहटाएंइसको फिरकों में क्यों बाँट खाने लगे,,,,,,लाजबाब प्रस्तुति,,,
अपनी आवाज़ को सही अंजाम तक पहुँचाना भी जरुरी है
जवाब देंहटाएंजिंदा है तो, जिंदा नज़र आना भी जरुरी है
हाँ शब्द कम है मेरे शब्दकोष में, इस गज़ल के लिए
पर प्रशंसा की भेट चढ़ा, आपके होठो पे मुस्कान लाना भी जरुरी है
लाजवाब
जवाब देंहटाएंगज़ल उर्दू की जागीर हरगिज नहीं है
क्या बात है वाह! बहुत ख़ूब पेशकश
जवाब देंहटाएंइक दिन वो मेरे ऐब गिनाने लगा कतील
जवाब देंहटाएंजब खुद ही थक गया तो मुझे सोचना पड़ा...
बहुत अच्छी बात समझाई ... कोई भी विधा किसी विशेष धर्म-भाषा की जागीर नहीं है..
जवाब देंहटाएंगहरी बात लिए पंक्तियाँ.....
जवाब देंहटाएंबुधवार, 31 अक्तूबर 2012
हटाएं"फिरकों में क्यों बाँट खाने लगे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मेरे लिक्खे तरानों को गाने लगे
वो ग़ज़लगो स्वयम् को बताने लगे
अपनी भाषा में हमने लिखे शब्द जब
ख़ामियाँ वो हमारी गिनाने लगे
क्या ग़ज़ल सिर्फ उर्दू की जागीर है
इसको फिरकों में क्यों बाँट खाने लगे
दिल को मन लिख दिया, हर्ज़ क्या हो गया
दायरा क्यों दिलों का घटाने लगे
होंगे अशआर नाजुक करेंगे असर
शैर में तल्ख़ियाँ क्यों दिखाने लगे
"रूप" क़ायम रहे, सोच रक्खो बड़ी
नुक्ता-चीनी में दिल क्यों लगाने लगे
इसी सन्दर्भ में बात है :एक शैर पे बड़ी गुफ्त -गु हुई -
शैर था -देख तो दिल के जाँ से उठता है ,ये धुआं सा कहाँ से उठता है .
एतराज़ उठा -दिल के जाँ के स्थान पे -दिल या जाँ से उठता है होना चाहिए था .
अब साहब गजल की अपनी रवायत होती है -दिल के जाँ में "के "का अर्थ "या "ही है .
दुष्यंत कुमार जी पर भी यह आरोप लगा -
कुछ हिंदी के विशुद्ध शब्द प्रयोगों पर आलोचकों ने आपत्ति की थी .
मत कहो आकाश पे कोहरा घना है ,यह किसी की व्यक्ति गत आलोचना है .
एतराज उठा था इस पर जबकि सन्दर्भ साफ था -प्रेस पे पाबंदी /आपातकाल के दौरान
बढ़िया मौजू रचना .
बुधवार, 31 अक्तूबर 2012
हटाएं"फिरकों में क्यों बाँट खाने लगे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मेरे लिक्खे तरानों को गाने लगे
वो ग़ज़लगो स्वयम् को बताने लगे
अपनी भाषा में हमने लिखे शब्द जब
ख़ामियाँ वो हमारी गिनाने लगे
क्या ग़ज़ल सिर्फ उर्दू की जागीर है
इसको फिरकों में क्यों बाँट खाने लगे
दिल को मन लिख दिया, हर्ज़ क्या हो गया
दायरा क्यों दिलों का घटाने लगे
होंगे अशआर नाजुक करेंगे असर
शैर में तल्ख़ियाँ क्यों दिखाने लगे
"रूप" क़ायम रहे, सोच रक्खो बड़ी
नुक्ता-चीनी में दिल क्यों लगाने लगे
इसी सन्दर्भ में बात है :एक शैर पे बड़ी गुफ्त -गु हुई -
शैर था -देख तो दिल के जाँ से उठता है ,ये धुआं सा कहाँ से उठता है .
एतराज़ उठा -दिल के जाँ के स्थान पे -दिल या जाँ से उठता है होना चाहिए था .
अब साहब गजल की अपनी रवायत होती है -दिल के जाँ में "के "का अर्थ "या "ही है .
दुष्यंत कुमार जी पर भी यह आरोप लगा -
कुछ हिंदी के विशुद्ध शब्द प्रयोगों पर आलोचकों ने आपत्ति की थी .
मत कहो आकाश पे कोहरा घना है ,यह किसी की व्यक्ति गत आलोचना है .
एतराज उठा था इस पर जबकि सन्दर्भ साफ था -प्रेस पे पाबंदी /आपातकाल के दौरान
बढ़िया मौजू रचना .
बुधवार, 31 अक्तूबर 2012
जवाब देंहटाएं"फिरकों में क्यों बाँट खाने लगे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मेरे लिक्खे तरानों को गाने लगे
वो ग़ज़लगो स्वयम् को बताने लगे
अपनी भाषा में हमने लिखे शब्द जब
ख़ामियाँ वो हमारी गिनाने लगे
क्या ग़ज़ल सिर्फ उर्दू की जागीर है
इसको फिरकों में क्यों बाँट खाने लगे
दिल को मन लिख दिया, हर्ज़ क्या हो गया
दायरा क्यों दिलों का घटाने लगे
होंगे अशआर नाजुक करेंगे असर
शैर में तल्ख़ियाँ क्यों दिखाने लगे
"रूप" क़ायम रहे, सोच रक्खो बड़ी
नुक्ता-चीनी में दिल क्यों लगाने लगे
इसी सन्दर्भ में बात है :एक शैर पे बड़ी गुफ्त -गु हुई -
शैर था -देख तो दिल के जाँ से उठता है ,ये धुआं सा कहाँ से उठता है .
एतराज़ उठा -दिल के जाँ के स्थान पे -दिल या जाँ से उठता है होना चाहिए था .
अब साहब गजल की अपनी रवायत होती है -दिल के जाँ में "के "का अर्थ "या "ही है .
दुष्यंत कुमार जी पर भी यह आरोप लगा -
कुछ हिंदी के विशुद्ध शब्द प्रयोगों पर आलोचकों ने आपत्ति की थी .
मत कहो आकाश पे कोहरा घना है ,यह किसी की व्यक्ति गत आलोचना है .
एतराज उठा था इस पर जबकि सन्दर्भ साफ था -प्रेस पे पाबंदी /आपातकाल के दौरान
बढ़िया मौजू रचना .
वाह .. ये हुई ना कुछ बात ...बहुत ही अच्छी व सटीक।
जवाब देंहटाएंmy recent post- घर कहीं गुम हो गया
http://rohitasghorela.blogspot.com
किसकी पिटाई हुई आज ? :)
जवाब देंहटाएंबहुत खूब..
जवाब देंहटाएंवाह ... बेहतरीन भाव
जवाब देंहटाएंवाह वाह...बेहतरीन गजल....
जवाब देंहटाएंवाह ! क्या बात है, शानदार.... शास्त्रीजी .... बधाई ...
जवाब देंहटाएं---लाजबाव, सुन्दर, बहुत खूब, अति-उत्तम |
गज़ल है,हज़ल है,कहन रूप, अति उत्तम |
बेहतरीन गजल....
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़ियाँ....
:-)
आदरणीय शास्त्री जी बेहद संवेदनशील प्रश्न सजाया है
जवाब देंहटाएंगजब के कहन हैं
आज का चर्चामंच इस सवाल के नाम रहा है
मसला गंभीर है और आपकी गजल बेहद उम्दा है
हार्दिक बधाई
आदरणीय शास्त्री जी बेहद संवेदनशील प्रश्न सजाया है
जवाब देंहटाएंगजब के कहन हैं
आज का चर्चामंच इस सवाल के नाम रहा है
मसला गंभीर है और आपकी गजल बेहद उम्दा है
हार्दिक बधाई
मेरी नज्म मेरे उनवाँ गुनगुनाने लगे..,
जवाब देंहटाएंलो वो गज़ल गो खुद को बताने लगे..,
खुद आसाई सब्त किए चंद फलसफे हमने..,
खामिया हर्फ़ गीरी कर वो गिनाने लगे..,
ये गज़ल है नहीं जागीर ये शाह्कारों की..,
इसको फ़िरको में क्यों बाँट खाने लगे..,
दिल में दिलबर लिखा हर्फ़-आशना होकर..,
हर्ज कर के वो हर्फ़-दर-हर्फ़ उठाने लगे..,
असर अशआर इक नर्म अंदाज तो छोड़ेंगे..,
शेर में तल्खियां आप क्यूँ दिखाने लगे.....