-- कालजयी साहित्य दे, चलते बने फकीर। नहीं डॉक्टर बन सके. तुलसी सूर-कबीर।1। -- गद्य-पद्य के साथ में, लिखो कथानक-कथ्य। कालजयी वो काव्य है, जिसमें होता तथ्य।2। -- उजड़ गयी है वाटिका, दूषित हुआ समीर। कालजयी साहित्य का, हरण हो रहा चीर।3। -- काम कलम का बोलता, नहीं बोलता नाम। छोड़ मान-व्यामोह को, करते रहना काम।4। -- दिल पर करते असर हैं, दिल से निकले भाव। बिना कलम के आसरे, पार न होगी नाव।5। -- सम्मानों की दौड़ से, रखना खुद को दूर। लिख करके साहित्य को, मत होना मगरूर।6। -- ओत-प्रोत हों छन्द से, गजल, दोहरे-गीत। छन्दमुक्त होता नहीं, कोई भी संगीत।7। -- |
"उच्चारण" 1996 से समाचारपत्र पंजीयक, भारत सरकार नई-दिल्ली द्वारा पंजीकृत है। यहाँ प्रकाशित किसी भी सामग्री को ब्लॉग स्वामी की अनुमति के बिना किसी भी रूप में प्रयोग करना© कॉपीराइट एक्ट का उलंघन माना जायेगा। मित्रों! आपको जानकर हर्ष होगा कि आप सभी काव्यमनीषियों के लिए छन्दविधा को सीखने और सिखाने के लिए हमने सृजन मंच ऑनलाइन का एक छोटा सा प्रयास किया है। कृपया इस मंच में योगदान करने के लिएRoopchandrashastri@gmail.com पर मेल भेज कर कृतार्थ करें। रूप में आमन्त्रित कर दिया जायेगा। सादर...! और हाँ..एक खुशखबरी और है...आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
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बुधवार, 8 मई 2024
दोहे "तुलसी सूर-कबीर" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
मंगलवार, 7 मई 2024
गीत "इन्साफ की डगर पर, नेता नही चलेंगे" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
--
इन्साफ की डगर पर, नेता नही चलेंगे। होगा जहाँ मुनाफा, उस ओर जा मिलेंगे।। -- दिल में घुसा हुआ है, दल-दल दलों का जमघट। संसद में फिल्म जैसा, होता है खूब झंझट। फिर रात-रात भर में, मन के सुमन खिलेंगे। होगा जहाँ मुनाफा उस ओर जा मिलेंगे।। -- उजली सी केंचुली में, रिश्वत भरा हुआ मन। देंगे वहीं मदद ये, होगा जहाँ कमीशन। दिन-रात कोठियों में, घी के दिये जलेंगे। होगा जहाँ मुनाफा, उस ओर जा मिलेंगे।। -- लगता है 'रूप' इनका, बिल्कुल दिखावटी है। लोगों से प्रेम इनका, केवल बनावटी है। बदमाश, माफिया सब, इनके ही घर पलेंगे। होगा जहाँ मुनाफा, उस ओर जा मिलेंगे।। -- |
सोमवार, 6 मई 2024
गीत "मानवता गुमनाम हो गई" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
-- खींचातानी फिकरेबाजी,
दुनियाभर में आम हो गई। दानवता के चौराहों पर, मानवता
गुमनाम हो गई।। -- मची हुई अफरा-तफरी है, प्रजा हुई गूँगी-बहरी है, सरिताओं की मौज थम गई,
कीचड़-काई ही ठहरी है, खिला नहीं अब तक भी
गुलशन, इन्तजार में शाम हो गई। दानवता के चौराहों पर,
मानवता गुमनाम हो गई।। -- बिगड़ रहे हैं बोल प्यार
के, प्रीत-रीत मनुहार नहीं है, दावे सबके बड़े-बड़े
हैं, लेकिन कुछ आधार नहीं है, आज सियासत की धरती पर, राजनीति
बदनाम हो गई। दानवता के चौराहों पर,
मानवता गुमनाम हो गई।। -- भूख-गरीबी लाचारी है,
मची हुई मारा-मारी है, नीलगगन आँसू टपकाता, उल्कापात
हुआ भारी है, भाईचारे की वादी में, हर
कोशिश नाकाम हो गई। दानवता के चौराहों पर,
मानवता गुमनाम हो गई।। -- नहीं चाकरी-नहीं नौकरी,
आस न हो पाई हैं पूरी लोकतन्त्र के गलियारों
से, बनी हुई है अब भी दूरी, बेकारी से लड़ते-लड़ते,
कुटिया तक नीलाम हो गई। दानवता के चौराहों पर,
मानवता गुमनाम हो गई।। -- गेहूँ पहले भी पिसता था,
अब भी वो है पिसता जाता, वही विवशता-वही अवशता, तुलसी
चन्दन घिसता जाता, गौ-गंगा के हाल न सुधरे,
भले अयोध्या धाम हो गयी। दानवता के चौराहों पर,
मानवता गुमनाम हो गई।। -- |
रविवार, 5 मई 2024
गीत "जो लिखोगे वही गीत बन जायेगा" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
गीत में भाव की भावना तो भरो, जो लिखोगे वही गीत बन जायेगा। प्यार की भावना से निमन्त्रित करो, जिसको चाहोगे वो मीत बन जायेगा।। -- लक्ष्य का रास्ता मत भटकना कभी, जिन्दगी का सफर राह महदूद है पारखी की नजर से तो देखो जरा, रत्न सागर में सारे ही मौजूद हैं, लाल-लय से सुरों को सजाया करो, इक सुरीला सा संगीत बन जायेगा। प्यार की भावना से निमन्त्रित करो, जिसको चाहोगे वो मीत बन जायेगा।। -- पहले सोचो-विचारो करो तब अमल, हमसफर से कभी ऊब जाना नहीं, ताल की पंक में खिल रहे कमल, दिल के दरिया में मत डूब जाना कभी, मन लगाकर दही को मथो तो जरा, शुद्ध ताजा सा नवनीत बन जायेगा। प्यार की भावना से निमन्त्रित करो, जिसको चाहोगे वो मीत बन जायेगा।। -- मोम सा दिल को अपने बनाओ जरा, आह को भी सुनो, चाह को भी सुनो, नींद भरपूर लो शान्त मन को रखो, जिनमें आशाएँ हों, ऐसे सपने बुनो, कमना छोड़कर साधना को करो, नाद अद्भुत कलातीत बन जायेगा। प्यार की भावना से निमन्त्रित करो, जिसको चाहोगे वो मीत बन जायेगा।। -- |
शनिवार, 4 मई 2024
दोहे "मछुआरे कंगाल" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
-- एक-दूसरे की सभी, खोल रहे हैं पोल। मर्यादा को लाँघकर, मुखरित होते बोल।1। -- जनसेवक बेखौफ हो, लगा रहे आरोप। बस का तो कुछ भी नहीं, फूट रहा है कोप।2। -- जब से आम चुनाव की, बहने लगी बयार। साफ नजर आने लगी, किसकी होगी हार।3। -- गरम हवा चलने लगी, सूख रहे हैं खेत। जनता ने खामोश हो, दिये मौन संकेत।4। -- कुमुद-कमल तालाब में, करते अपना खेल। हाथ नहीं आता नजर, रहे रोटियाँ बेल।5। -- नवयुग में थम सी गयी, छली-बली की चाल। अपने भी उनका नहीं, रखते हैं अब ख्याल।6। -- मीन सयानी हो गयी, मछुआरे कंगाल। अवश-विवश हो फेंकते, जल में अपने जाल।7। -- |
शुक्रवार, 3 मई 2024
दोहे "पीर गरीबी भूख" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
-- लिखता अब कोई नहीं, पीर गरीबी भूख। जन-सेवक की आँख का, गया नीर अब सूख।1। -- आज द्रोपदी का नहीं, रहा सलामत चीर। कितने निर्मम हो गये, योगी सन्त फकीर।2। -- गीत-गजल में चल पड़ी, फिकरेबाजी आज। इश्क-मुश्क लिखकर कहें, अपने को
कविराज।3। -- बागों में उगने लगे, काँटे-खरपतवार। उपवन का माली गया, अपनी हिम्मत हार।4। -- भ्रष्ट हो गया आचरण, रही न नीयत नेक। नई पौध में मिट गया, धीरज और विवेक।5। -- मानवता का हो रहा, पग-पग पर उपहास। दानवता का हो रहा, जग में आज विकास।6। -- धरती से गायब हुआ, भाईचारा मेल। दुख के बादल खेलते, कुदरत के सँग खेल। -- |
गुरुवार, 2 मई 2024
ग़ज़ल "उल्फत की होती अदायें निशानी" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
-- वही रंग-ढँग हैं, वही है रवानी अलग तो नहीं है, किसी की कहानी -- जमाने से कुछ भी, जुदा तो नहीं है दुहरा रहे दास्तां, सब पुरानी -- चमन में खिले फूल, देते गवाही आती सुबह-शाम, हर दिन सुहानी -- चहकते-महकते, जवां दिल हमेशा मदमस्त होती है, अल्हड़ जवानी -- खुद अपनी राहें, बनाता है झरना, उन्मुक्त बहता, पहाड़ों से पानी -- नजर देखती है, उसी के नजारे कमर जिसकी हो, लोचवाली कमानी -- हसीं 'रूप' पर
होते, आशिक दिवाने, उल्फत की होती, अदायें निशानी -- |
बुधवार, 1 मई 2024
दोहे "श्रमिक दिवस" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
-- मजदूरों से है नहीं, जिनका कुछ सम्बन्ध। श्रमिक-दिवस पर लिख रहे, वो भी शोध-प्रबन्ध।। -- सुबह दस बजे जागते, सोते आधी रात। खाकर माल हराम का, करते श्रम की बात।। -- काँटे और गुलाब का, कैसा है संयोग। अन्तर आलू-आम का, नहीं जानते लोग।। -- नहीं गये जो बाग में, देखा नहीं बसन्त। वही बने हैं आज भी, मजदूरों के सन्त।। -- जिसने झेली ही नहीं, शीत-ग्रीष्म-बरसात। वो जननायक कर रहा, मजदूरों की बात।। -- सस्ता बिका किसान का, गेहूँ-चावल-दाल। जाते ही बाजार में, आ जाता भूचाल।। -- बिकती यहाँ शराब क्यों, कोई नहीं जवाब। क्यों होती श्रमवीर की, हालत यहाँ खराब।। -- सत्ता में आयी-गई, कितनी ही सरकार। नहीं किसानों को दिया, कोई भी उपहार।। -- |
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